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एक ही सिक्के के दो पहलू : सम्मान व अपमान, लोभ व भय
उनसे हमें भय भी लगा रहता है, डर भी लगा रहता है। कभी भी, जो दिया है, वह वापस लिया जा सकता है। और जो नहीं दिया है, उस पर आंख भी लगी रहती है कि वह भी हमें मिल जाए।
ये लोभ और भय हमारे भीतर हैं। और इस लोभ और भय से हम जो भी संबंध निर्मित करते हैं जीवन में, वे सभी हमें दुख लाएंगे। उनसे किसी से भी सुख आने का कोई उपाय नहीं है। क्योंकि परतंत्रता गहरे से गहरा दुख है। और अगर मेरी आत्मा भी उधार है और केवल दूसरों के टुकड़ों से निर्मित हुई है...।
पिकासो ने एक राजनीतिज्ञ का बहुत समय पहले एक चित्र बनाया था। वह चित्र खूबी का था। उस चित्र में उसने रंगों का उपयोग नहीं किया था, केवल अखबार की कतरनों का उपयोग किया था। अखबार के टुकड़े काट-काट कर कैनवास पर चिपका दिए थे और राजनीतिज्ञ का चित्र बना दिया था।
गहरी बात है! राजनीतिज्ञ के पास अखबार की कतरन के अलावा कुछ होता भी नहीं है। वही उसकी आत्मा है। कभी आपने खयाल किया है, एक राजनीतिज्ञ पद से उतर जाता है, अखबारों में उसकी खबर छपनी बंद हो जाती है, तब आपको यह भी पता लगाना मुश्किल है कि वह आदमी कहां खो गया! आपको अब आखिरी बार उसकी खबर तभी लगेगी, जब वह मरेगा। इस बीच आपको यह भी पता लगाना मुश्किल है कि वह आदमी जिंदा है या मर गया! अब एक ही खबर और छपेगी उसकी। अखबार के टुकड़ों का जोड़ है वह।
लेकिन राजनीतिज्ञ ही ऐसा है, ऐसा नहीं। हम भी सब इसी तरह के जोड़ हैं। अगर मैं आपसे कह दूं कि आप सुंदर नहीं दिखाई पड़ते मुझे, तो आपको इतनी पीड़ा क्यों हो जाती है? या मैं कह दूं कि आप कुरूप हैं, तो आपको इतनी पीड़ा क्यों हो जाती है?
आपको आपके सौंदर्य का कोई भी पता नहीं है। लोगों ने जो कहा है, वही आपका सौंदर्य है। मैं अपनी ईंट वापस खींच लेता हूं, मैं कहता हूं कि नहीं, मुझे आप सुंदर नहीं मालूम पड़ते। और आपके भवन में दरार पड़ जाती है। और भय पैदा हो जाता है : आज एक आदमी ने खींचा है, कल दो आदमी खींच लेंगे, परसों तीन आदमी खींच लेंगे। सौंदर्य का क्या होगा?
मैं आपको बुद्धिमान मानता हूं, तो आप बुद्धिमान हैं। और अगर मैं आपको बुद्ध कह दूं, तो आप बुद्ध हो जाते हैं। नाराजगी क्यों पैदा होती है? नाराजगी इसलिए पैदा होती है कि आप मेरे ही सहारे बुद्धिमान हैं। अगर बुद्ध को कोई कह दे कि बुद्धिमान नहीं हो, तो बुद्ध हंस कर उस गांव से निकल जाएंगे। क्योंकि बुद्ध किसी और के कारण बुद्धिमान नहीं हैं; अपने ही कारण हैं, जो भी हैं।
हमारी पीड़ा क्या है निंदा में? हमारी पीड़ा यही है कि हम अपने भीतर कुछ भी नहीं हैं। दूसरों ने जो बनाया है, वही हैं। तो चार आदमियों के मत पर निर्भर है हमारा होना। यह हमारा अहंकार लोगों के मतों से तय हुआ है। लोग कहते हैं। इसलिए हम बहुत डरते हैं इस बात से कि लोग क्या कहेंगे! क्योंकि तम और कुछ हैं ही नहीं।
ध्यान करने लोग मेरे पास आते हैं, तो वे कहते हैं कि अगर हमने ऐसा किया, तो लोग क्या कहेंगे?
ये लोग कौन हैं? ये लोग वे ही हैं, जिन्होंने आपका अहंकार निर्मित किया है। आपको भय है उनका, कहीं वे अपने खयाल न बदल दें, कहीं वे यह न कहने लगे कि अब तुम पागल मालूम पड़ते हो। यह तुम क्या कर रहे हो? तो हमारी आत्मा उनके हाथ उधार रखी है। वे जो कहेंगे, वही हम हो जाएंगे। वे जो कह रहे हैं, वही हम हैं।
हमारा अपना कोई होना है? हमारी कोई प्रामाणिक सत्ता, कोई आथेंटिक एक्झिस्टेंस है? या सिर्फ हम कागज की कतरन हैं? लोगों के मतों का संग्रह हैं?
लेकिन अभी जैसे हम हैं, वह हमारी स्थिति यही है। इसलिए निंदा पीड़ा देती है। क्योंकि निंदा हमें चुभती है, हमारे भवन को गिराती है। प्रशंसा सुख देती मालूम पड़ती है, क्योंकि भवन मजबूत होता है।
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