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ताओ उपनिषद भाग २
ईश्वर से तो संबंध उसका हो सकता है, जिसके भीतर लोभ और भय का कोई उपाय न रहा हो। और मैंने जैसा कहा, अहंकार हमारे लोभ और भय का आधार है। लोभ और भय जिसके भीतर नहीं हैं, उसके और ईश्वर के बीच कोई दीवार न रही। इसी क्षण द्वार खुल जा सकता है।
लेकिन लोभ और भय को हम एक ही शक्ल में नहीं देखते, एक ही चीज के दो पहलू की तरह नहीं देखते। लोभ विधायक हिस्सा है और भय निषेधात्मक हिस्सा है। किसी को हम पुरस्कार की बात करते हैं, वह लोभ है। और किसी को दंड की बात करते हैं, वह भय है। और जहां भी पुरस्कार है, वहां दंड है। और जहां भी दंड है, वहां पुरस्कार है। स्वर्ग पुरस्कार है, नर्क दंड है। सम्मान पुरस्कार है, अपमान दंड है।
समाज आपकी लगाम को इसी लोभ और भय के आधार पर संचालित करता है। समाज देगा सम्मान उस व्यक्ति को, जो समाज की माने। समाज देगा दंड उस व्यक्ति को, समाज की जो न माने। समाज सम्मानित करेगा, अगर आप समाज की छाया बन जाएं। समाज अपमानित करेगा, अगर आप समाज से भिन्न और ऊपर होने की चेष्टा करें। इसलिए समाज सुकरात को या जीसस को या महावीर को या मोहम्मद को कष्ट देगा ही। वह कष्ट बिलकुल स्वाभाविक है; क्योंकि ये व्यक्ति समाज से ऊपर होने की चेष्टा कर रहे हैं। समाज से ऊपर होने की चेष्टा का अर्थ है लोभ और भय से ऊपर होने की चेष्टा। समाज का तो सारा ताना-बाना लोभ और भय से निर्मित है। जो भी व्यक्ति इन दोनों के ऊपर होना चाहेगा, समाज को खतरा दिखाई पड़ेगा।
महावीर कहते हैं, मैंने सब लोभ छोड़ दिया। और महावीर कहते हैं, मैंने सब भय भी छोड़ दिया। यह कब संभव है? यह लोभ और भय का छूटना कब संभव है? यह तभी संभव है जब मुझे दूसरे से कोई मांग न रह जाए-कोई भी मांग न रह जाए। जब मैं अपने भीतर इतना आप्तकाम हो जाऊं, जब अपने भीतर इतना पूरा हो जाऊं कि मुझे पूरा करने के लिए किसी की भी जरूरत न रहे। फिर मैं जीऊं या मर जाऊं, लेकिन मेरी पूर्णता मेरे भीतर हो, तो मेरा लोभ और भय विसर्जित हो जाए।
लेकिन हम तो हर छोटी-बड़ी बात में दूसरे पर निर्भर हैं। अगर कोई प्रेम से मेरी तरफ देख लेता है, तो मेरे भीतर दीया जल जाता है। कोई घृणा से देख लेता है, दीया बुझ जाता है। मेरे पास कोई अपनी रोशनी नहीं है। मेरे पास जो कुछ भी है, वह सब दूसरों से मिला हुआ, उधार है। मैं एक उधारी हैं, जिसमें दूसरों ने कुछ दान दिया है। इसलिए भयभीत ही रहना पड़ता है। कभी भी अपनी ईंटें वे खींच लें, तो मेरा भवन गिर जाए। इसलिए जिन्होंने मुझे दिया है, उनसे मुझे भयभीत रहना पड़ता है। और जो उन्होंने अभी मुझे नहीं दिया है, उसके लोभ से भरा रहता हूं कि वह भी मुझे मिल जाए। इस भांति कभी अपने को सोचने की कोशिश करें कि आप भी एक मकान हैं, जिसमें दूसरे लोगों ने दान दिया है।
कुछ पुरानी यहूदी बस्तियों में एक नियम था कि जब भी कोई नया यहूदी बस्ती में आए, तो सारा गांव एक-एक रुपया उसे भेंट कर दे–प्रत्येक व्यक्ति। तो अगर दस हजार लोग होते तो दस हजार रुपए उसे मिल जाते। उसकी जिंदगी गतिमान हो जाती। मकान बन जाता, उसकी दूकान खुल जाती। फिर दुबारा कभी कोई नगर में नया आदमी आएगा, तो इस आदमी को भी उसे एक रुपया देना होगा।
यह बढ़िया सामाजिक व्यवस्था थी। गांव में कोई आदमी गरीब नहीं रह सकता था। लेकिन इस घटना को मैं किसी दूसरे प्रयोजन से कह रहा हूं। हम भी इस जिंदगी में आते हैं और चारों तरफ से थोड़े-थोड़े टुकड़े हमें दिए जाते हैं। उन्हीं टुकड़ों के आधार पर हम भीतर अहंकार का भवन निर्माण करते हैं। कुछ पिता देते हैं, कुछ मां देती है, कुछ भाई-बहन देते हैं, कुछ संगी-साथी, गांव के लोग, पड़ोस के लोग देते हैं। और उन सबसे हमारे भीतर अहंकार का भवन निर्मित होता है। फिर भय बना रहता है कोई भी कभी एक ईंट खींच ले! इसलिए जिनसे हमें मिलता है,
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