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एक ही सिक्के के दो पहलू : सम्मान व अपमान, लोभ व भय
लाओत्से कहता है, सम्मान-अपमान दोनों से हमें निराशा मिलती है। निंदा से तो मिलेगी ही, क्योंकि अहंकार के पैर उखड़ जाते हैं। सम्मान से भी निराशा मिलती है, क्योंकि वही निंदा का भी मूल कारण है। लाओत्से ने कहा है कि अगर तुम चाहो कि कोई तुम्हारी निंदा न करे, तो तुम किसी से सम्मान मत मांगना। वहां बड़ी कठिनाई होती है मन को। यह तो हम भी चाहते हैं कि कोई निंदा न करे; लेकिन दूसरी शर्त मानने का मन नहीं होता। यह कौन नहीं चाहता कि निंदा न की जाए? लेकिन लाओत्से कहता है, अगर चाहते हो कि कोई तुम्हारी निंदा न करे, तो सम्मान की अपेक्षा मत करना। यह दूसरी शर्त मानने का मन नहीं होता। मगर इस दूसरी शर्त पर ही सब कुछ निर्भर है। जरा सी इंच भर आकांक्षा सम्मान की, और हजार इंच निंदा का उपाय हो जाता है।
लाओत्से ने कहा है, तुम सिंहासन पर बैठना ही मत; नहीं तो नीचे गिराए जाओगे। और लाओत्से ने कहा है, असफल होने में भी राजी हो जाना; फिर तुम्हें कोई असफल न कर सकेगा। और हार को ही जीत समझ लेना; फिर इस जगत में तुम्हें हराने की किसी की क्षमता नहीं है। लेकिन यह शर्त कठिन है। लेकिन यह शर्त मौलिक जरूर है, गहरी जरूर है, जड़ों की बात है। अगर निंदा न चाहिए हो, तो सम्मान मत मांगना।
हम भी कोशिश करते हैं कि निंदा न मिले। हम किस तरह से कोशिश करते हैं? हमारी कोशिश आत्मघाती है। निंदा न मिले, इसकी हमारी कोशिश यह होती है कि हम सम्मान की और व्यवस्था कर लें। निंदा न मिले, इसका मतलब यह होता है कि सम्मान की जितनी-जितनी जरूरतें हैं, वे हम पूरी कर दें। लोग जिस ढंग से सम्मान देते हैं, हम उस ढंग के आदमी हो जाएं। लोग जिस आचरण को सम्मान देते हैं, वैसा हमारा आचरण हो जाए। लोग जिस तरह के ढोंग को सम्मान देते हैं, वैसा ढोंग हम भी आरोपित कर लें। लोग जो चाहते हैं, वह हम पूरा कर दें, ताकि सम्मान मिले।
लेकिन लाओत्से कहता है कि जितनी तुमने यह व्यवस्था की, उतनी ही तुम कठिनाई में पड़ जाओगे। क्योंकि पहली तो बात यह है कि दूसरों के हिसाब से कोई भी व्यक्ति अपने को कभी निर्मित नहीं कर सकता। सब इस भांति का निर्माण अभिनय हो जाता है, थोथा पाखंड हो जाता है। और भीतर से असली आदमी बार-बार प्रकट होता रहता है। फिर दूसरों की इच्छा से जो अपने को निर्मित करता है, वह अगर सम्मान भी पा ले, तो भी अहंकार के अतिरिक्त
और कोई तृप्ति नहीं होती। और अहंकार की कोई तृप्ति नहीं है। अहंकार भिखारी का पात्र है। उसे हम कितना ही भरें, वह भरता नहीं। उसकी मांग आगे बढ़ जाती है।
'हम जिसे मूल्यवान समझते हैं और जिससे भयभीत होते हैं, वे दोनों ही हमारे स्वयं के भीतर मौजूद हैं।' हम जिसे मूल्यवान समझते हैं और जिससे भयभीत होते हैं!
प्रलोभन और भय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ऐसा हम आमतौर से देखते नहीं; ऐसा हमें सीधा-सीधा खयाल नहीं आता। लेकिन जो आदमी लोभ से भरा है, वह आदमी भय से भी भरा हुआ होगा। लोभी भयभीत न हो, ऐसा असंभव है। और जो आदमी भयभीत है, वह बिना लोभ के भयभीत नहीं हो सकता। इसलिए भयभीत आदमी के भीतर लोभ न हो, यह असंभव है। फिर वह भय कोई भी क्यों न हो।
अगर एक आदमी परमात्मा से भी भयभीत है, तो उसका कारण लोभ है। कुछ धर्मों ने आदमी को भयभीत करके ही परमात्मा की तरफ ले जाने की कोशिश की है। ईश्वर-भीरु, गॉड-फियरिंग हम धार्मिक आदमी को नाम देते हैं। गलत है वह नाम। ईश्वर का भय! तो जरूर किसी लोभ के कारण ही होगा। कुछ पाने का लोभ, कुछ खो न जाए, इस बात का लोभ ही भय पैदा करेगा। कहीं नर्क में न डाल दिया जाऊं, कहीं जन्मों-जन्मों तक दुख न झेलना पड़े, इस भय से, कि ईश्वर नाराज न हो जाए, इस भय से—ये सब लोभ के ही रूप हैं। ईश्वर के भय से ही जो संचालित हो रहा है, वह लोभ से ही संचालित हो रहा है। और लोभी का ईश्वर से कोई संबंध नहीं हो सकता। भीरु का भी कोई संबंध नहीं हो सकता।
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