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ताओ उपनिषद भाग २
आज तक दुनिया में ऐसा आदमी नहीं हुआ, जिसे ऐसा अनुभव हुआ हो कि जितना सम्मान उसे मिलता है, वह उसके लिए काफी हो। सदा लगता है कि मैं तो बहुत ज्यादा हूं, लोग अभी समझ नहीं पा रहे हैं। जब लोग पूरा समझेंगे, तब! मेरी अपनी प्रतिमा मेरी अपनी आंखों में सदा उन सब प्रतिमाओं के जोड़ से बड़ी होती है, जो दूसरों की आंखों में दिखाई पड़ती हैं। और मेरी यह प्रतिमा कोई स्थिर बात नहीं है। जितना इसे बढ़ावा मिलता है, उतनी यह बढ़ती चली जाती है। जितनी इसे प्रशंसा मिलती है, उतना इसे पानी मिलता है, खाद मिलती है। और यह प्रतिमा बड़ी होती चली जाती है। एक बात निश्चित है कि जो भी इस प्रतिमा को दिया जाए सम्मान, यह प्रतिमा उसे आत्मसात कर लेती है। और आगे की मांग शुरू हो जाती है।
यह मजे की बात है कि जितना भी सम्मान मुझे मिले, उससे मुझे आनंद तो नहीं मिलेगा, क्योंकि उसे मैं स्वीकार कर लूंगा; उससे मुझे दुख जरूर मिलेगा, अगर फिर उतना सम्मान मुझे न मिले। आज आपने नमस्कार की
और कल मुझे नमस्कार नहीं की। तो आज जब नमस्कार आप करेंगे, तब तो मैं मान लूंगा कि मैं आदमी ही ऐसा हूं कि नमस्कार आपको करनी पड़ी। लेकिन कल जब आप नमस्कार नहीं करेंगे, तब मैं दुख जरूर पाऊंगा। अहंकार से, जो मिलता है, उससे तृप्ति नहीं होती; और जो नहीं मिलता, उससे दुख होता है। जो मिलता है, उसे तो अहंकार स्वीकार कर लेता है, राजी हो जाता है। फिर जो नहीं मिलता, उससे पीड़ा आनी शुरू होती है।
फिर जो मिल जाता है, उसे बचाने का भी बड़ा भारी आकर्षण पैदा होता है। जितनी प्रशंसा मुझे मिल जाए, कम से कम उतनी प्रशंसा मिलती रहे, इसकी फिर सतत चेष्टा शुरू हो जाती है। और तब भय पैदा होता है : कहीं छिन न जाए! जो आदर मुझे आज मिल रहा है, कल मिले न मिले! तो जो मिल जाता है, उसे बचाना है, सुरक्षा करनी है। फिर भय पकड़ता है। और अगर वह न मिले तो दुख आता है।
तो लाओत्से कहता है, सम्मान मिल जाए तो भी शांति तो नहीं मिलती, और अशांत हो जाता है मन, और दुखी हो जाता है मन। और निंदा मिले, तब तो पीड़ा होती ही है। निंदा तो पीड़ा देगी ही। यह भी थोड़ा समझ लेना चाहिए कि निंदा भी उसी मात्रा में पीड़ा देती है, जिस मात्रा में सम्मान की अपेक्षा होती है।
चौदह सौ साल पहले बोधिधर्म चीन में प्रवेश किया, एक भारतीय भिक्षु। लाखों लोग उसे लेने के लिए चीन की सीमा पर इकट्ठे हुए थे। चीन का सम्राट भी उसके चरणों में सिर रख कर लेटा था। लेकिन जब उसने आंख उठा कर देखा, तो सम्राट हैरान हुआ। और वे लाखों लोग भी परेशानी में पड़ गए। बोधिधर्म एक जूता अपने पैर में पहने था और एक जूता अपने सिर पर रखे हुए था। सम्राट वू ने कहा कि मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि यह आपने एक जूता अपने सिर पर क्यों रख लिया है?
बोधिधर्म ने कहा, संतुलन की दृष्टि से। मुझे पता चला कि सम्राट मेरे चरणों में सिर रखेगा, तो संतुलित कर लेना उचित है। कहीं संतुलन खो न जाए, इसलिए एक जूता मैंने अपने सिर पर रख लिया। तुम्हारे सम्मान को मैं अपने ही हाथों अपनी निंदा करके पोंछ डालता हूं। तुमने जो सम्मान दिया है, उसे मैं ही मिटाए डालता हूं। यह लेन-देन पूरा हो गया। मैंने तुम्हारी प्रशंसा स्वीकार नहीं की। और तुम भलीभांति जान लो कि अगर कल तुम मेरे सिर पर जूता भी मार दोगे, तो निंदा से मुझे कुछ प्रयोजन नहीं है। यह जूता रख कर मैं प्रवेश ही कर रहा हूं।
हमारी अपेक्षा ही हमारी निंदा का वजन है। मैं जितनी अपेक्षा करता हूं सम्मान की, उतनी ही निंदा में पीड़ा होगी। अगर मेरी कोई भी अपेक्षा नहीं, तो निंदा में कोई भी पीड़ा नहीं रह जाती। इसलिए इसे ऐसा भी समझ लें निंदा की पीड़ा निंदा में नहीं है, निंदा की पीड़ा सम्मान की अपेक्षा में है। जब आप मुझे गाली देते हैं, तो आपकी गाली में पीड़ा नहीं है। मैंने सोचा था कि आप नमस्कार करेंगे और गाली मिली, इसलिए पीड़ा है। सम्मान दुख देता है, भय देता है। और सम्मान की अपेक्षा निंदा में वजन ला देती है, निंदा को भारी कर देती है।
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