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________________ एक ही सिक्के के दो पहलू : सम्मान व अपमान, लोभ व भय इसलिए महावीर ने कहा है कि अब मैं जिन हो गया। जिन का अर्थ है, अब मैंने अपने को जीत लिया। अब तक मैं गुलाम था दूसरों का, अब मैं जीता हुआ आदमी हूं। अब तुम कुछ भी करो, तुम मेरे भीतर कोई फर्क न कर पाओगे। मैं तुम्हारी पकड़ के बाहर हूं। इसे हम ऐसा समझें। आपके भीतर जो अहंकार है, वह आपके चारों तरफ के लोगों के हाथ हैं आपके भीतर फैले हुए। समाज के हाथ हैं आपके भीतर फैले हुए। इसलिए समाज हर आदमी में अहंकार को पैदा करवाता है। यद्यपि मजे की बात है, सभी समाज लोगों को सिखाते हैं विनम्र होने के लिए, लेकिन सभी समाज अहंकार की शिक्षा देते हैं। और मजे की बात यह है कि विनम्रता भी समाजों के द्वारा अहंकार की ही एक व्यवस्था है। बाप अपने बेटे से कहता है, विनम्र रहो, तो ही तुम्हें सम्मान मिलेगा। गुरु अपने शिष्यों को समझाते हैं, तुम जितने विनम्र रहोगे, जितने सरल रहोगे, उतने प्रशंसा के पात्र बनोगे। यह बड़े मजे की बात है। क्योंकि प्रशंसा का पात्र तो अहंकार बनता है। विनम्रता को भी हम अहंकार का ही आभूषण बनाते हैं। हम उस आदमी को समाज में प्रतिष्ठा देते हैं, जो विनम्र है। और प्रतिष्ठा देते हैं, इसलिए उसे विनम्र होने में सुविधा भी मिलती है। क्योंकि विनम्रता अहंकार का आभूषण बन जाती है। समाज बिना अहंकार को परिपुष्ट किए नहीं जी सकता। क्योंकि समाज चाहता है, आपके भीतर समाज के हाथ होने चाहिए। अगर समाज के हाथ आपके भीतर नहीं हैं, तो आप समाज से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए छोटे से बच्चे से लेकर बूढ़े तक, हम हर आदमी को अहंकार सिखा रहे हैं-बहुत-बहुत रूपों में। भले आदमी का अहंकार है, बुरे आदमी का अहंकार है। साधु का अहंकार है, असाधु का अहंकार है। और हम भीतर एक केंद्र निर्मित कर रहे हैं, जिस पर हमारा कब्जा होगा-बाहर के लोगों का। लाओत्से कहता है कि प्रशंसा हो या निंदा, बाहर से आती मालूम पड़ती है, लेकिन उसका मौलिक कारण हमारे भीतर होता है। जब कोई मुझे गाली देता है, तो उसकी गाली नहीं अखरती; मुझे देता है, इसलिए अखरती है। और जब कोई प्रशंसा करता है, तो उसकी प्रशंसा से मेरा क्या प्रयोजन है? मेरी प्रशंसा करता है, इसलिए प्रयोजन है। प्रशंसा हमारा भोजन है। निंदा भी नकारात्मक भोजन है। बर्नार्ड शॉ ने कहा है-मजाक में ही सही, लेकिन हम सबके भीतर ऐसा भाव है-बर्नार्ड शॉ ने कहा है कि मैं स्वर्ग को भी इनकार कर दूंगा, अगर मुझे नंबर दो का स्थान मिले। मैं नर्क जाना भी पसंद करूंगा, अगर मैं नंबर एक होऊं। आप भी अपने मन से पूछे कि स्वर्ग में नंबर दो जगह मिलती है, तो पसंद करिएगा? कि नर्क में नंबर एक जगह मिलती हो, तो पसंद करिएगा? तो आपके भीतर से भी वही बात खयाल में आएगी कि नंबर एक होना ही बेहतर है, चाहे वह नर्क ही क्यों न हो। और ऐसा नहीं है कि यह कोई काल्पनिक सवाल है। जिंदगी में हम सब यही कर रहे हैं। नंबर एक होने की कोशिश में पूरा नर्क पैदा कर रहे हैं। लेकिन नंबर एक होना जरूरी है। तो नर्क को हम झेल लेते हैं। एक आदमी धन कमा रहा है, वह कितना नर्क अपने आस-पास पैदा कर लेता है। एक आदमी राजनीति की सीढ़ियां चढ़ रहा है, वह कितना नर्क अपने आस-पास पैदा कर लेता है। लेकिन वह नर्क दिखाई नहीं पड़ता। एक ही बात दिखाई पड़ती है कि मैं नंबर एक कैसे हो जाऊं? लेकिन लाओत्से कहता है कि नंबर एक भी हो जाओ, प्रशंसा भी मिल जाए, सम्मान भी मिल जाए, तो भी दुख के बाहर न जा सकोगे। क्यों? क्योंकि जितनी प्रशंसा मिलती है, उतनी ही अहंकार की मांग बढ़ जाती है। जितनी प्रशंसा मिलती है, उतनी तो मैं स्वीकार कर लेता हूं, वह टेकेन फॉर ग्रांटेड हो जाती है। जितना सम्मान मुझे मिल जाता है, उतना तो मैं मान लेता हूं कि मिलना ही चाहिए था। आदमी ही मैं ऐसा हूं। मांग आगे चली जाती है। 139
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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