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ताओ उपनिषद भाग २
हम सुखी हो जाते हैं। जरा सी बात, और आंखें आंसुओं से भर जाती हैं। और जरा सी बात की बदलाहट, कि चेहरे पर मुस्कान फैल जाती है। हमारे आंसू, हमारी मुस्कान, बाहर से कोई संचालित करता है।
लेकिन लाओत्से कहता है, यह जो बाहर से संचालन हो रहा है, इसका भी गहरा कारण हमारे भीतर है। वह हमारा अहंकार है। अहंकार के कारण ही हम दूसरों से प्रभावित होते हैं। चाहे मित्र, चाहे शत्रु, चाहे प्रशंसा करने वाले और चाहे निंदा करने वाले, दूसरा हमें प्रभावित कर लेता है, क्योंकि हमारे पास अपनी कोई वास्तविक आत्मा नहीं है, एक झूठा केंद्र है, एक सूडो सेंटर है, एक मिथ्या केंद्र है। उस मिथ्या केंद्र की बनावट ही ऐसी है कि वह दूसरे के कब्जे में रहेगा।
इसे थोड़ा समझ लें। अहंकार आपके कब्जे में नहीं है। यह सुन कर हैरानी होगी, क्योंकि हम सब सोचते हैं कि अहंकार मेरा है तो मेरे कब्जे में है। इस भ्रांति में कभी आप मत पड़ना। अहंकार आपके कब्जे में नहीं है। अहंकार दूसरों के कब्जे में है। इसलिए दूसरे के एक-एक शब्द का मूल्य है। रास्ते पर चार लोग नमस्कार कर लेते हैं, तो आपकी छाती फूल जाती है। और चार लोग गालियां दे देते हैं, तो छाती सिकुड़ जाती है। चार लोग आपकी तरफ देख लेते हैं प्रशंसा की आंखों से, तो आपके भीतर फूल खिल जाते हैं। और चार लोग आपकी तरफ प्रशंसा की . आंखों से नहीं देखते, निंदा की आंखों से देख लेते हैं, आपके भीतर की सब खुशी मर जाती है, सब सुगंध दुर्गध हो जाती है, सब फूल कुम्हला कर गिर जाते हैं। यह अहंकार आपके भीतर है, लेकिन आपके हाथों में नहीं है। अहंकार दूसरों के हाथों में है। इसलिए अहंकार सदा दूसरों पर निर्भर है। इसलिए अहंकार सदा ही दूसरों की खोज करता है। अहंकार अकेला नहीं रह सकता। अगर जंगल के एकांत में आपको घबड़ाहट होती है, तो वह आपकी घबड़ाहट नहीं, वह आपके अहंकार की घबड़ाहट है। अगर कमरे के एकांत में आपको घबड़ाहट होती है और चेष्टा होती है कि साथी खोजें, तो वह आपकी घबड़ाहट नहीं, आपके अहंकार की घबड़ाहट है। एकांत में अहंकार को मुश्किल हो जाता है जीना। अहंकार को प्रतिपल सहारा चाहिए।
और यह मजे की बात है, अहंकार निंदा सह सकता है, एकांत नहीं सह सकता। अहंकार निंदा में भी जी. सकता है, एकांत में नहीं जी सकता। अहंकार को प्रशंसा मिले, तब तो कहना क्या! लेकिन अगर प्रशंसा न मिले, तो निंदा भी बेहतर है। लेकिन एकांत एकदम खतरनाक है। क्योंकि निंदा में भी दूसरा आपको मूल्य तो देता ही है। अगर कोई मुझे गाली देता है, तो भी मुझे स्वीकार तो करता ही है। और अगर वह मुझे गाली दिए ही चला जाता है, तो मेरी महत्ता को भी अंगीकार करता है-मैं कुछ हूं! अगर अखबार में एक अपराधी की तरह भी मेरा नाम छपता है, तो भी अहंकार जी सकता है। अगर सड़क से मेरे हाथों में जंजीरें डाल कर मुझे कारागृह ले जाया जाता है, तो भी मेरा अहंकार जी सकता है। लेकिन अकेले में अहंकार नहीं जी सकता।
मोहम्मद, महावीर या बुद्ध या जीसस के एकांत में जाने का जो मौलिक कारण है, वह इस बात की खोज है कि उनके भीतर अहंकार अभी भी बचा है या नहीं। अगर वे अकेले में जी सकते हैं और उन्हें दूसरे की कोई याद नहीं आती, तो उसका अर्थ है, अहंकार विसर्जित हो गया।
महावीर बारह वर्षों तक एकांत में थे। साधारणतः महावीर को मानने वाले सोचते हैं कि समाज को छोड़ कर गए थे। वह बहुत ऊपरी नजर है। समाज से महावीर को कुछ लेना-देना नहीं। महावीर बारह वर्ष इस परख के लिए एकांत में थे कि मेरे भीतर अब भी कोई अहंकार का केंद्र है या नहीं, जो समाज के लिए तड़पता हो, जो मांग करता हो दूसरे की। जब बारह वर्ष के निरंतर परीक्षण से उन्हें खयाल में आ गया कि अब उनके भीतर दूसरे की कोई मांग नहीं है, तब वे वापस समाज में लौट आए। अब उनके पास अपनी आत्मा थी। अब सड़कों पर कोई फूलमालाएं उनके ऊपर फेंके, या पत्थर मारे, इससे उनके भीतर कोई भी फर्क नहीं पड़ सकता। अब वे अपने मालिक थे।
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