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दा और प्रशंसा, सम्मान और अपमान, दोनों से हमें निराशा मिलती है। हम जिसे मूल्यवान समझते हैं और जिससे भयभीत होते हैं, वे दोनों ही हमारे स्वयं के भीतर हैं। सम्मान और अपमान के संबंध में ऐसा कहने का क्या अर्थ है? सम्मान-प्राप्ति के बाद निम्न स्थिति में होना ही अपमान है। और सम्मान की उपलब्धि से उसे खोने का भय भी पैदा होता है। और उसे खोने पर और अधिक संकटों के भय का जन्म होता है।' इस सूत्र को समझने के पहले इस सूत्र के आस-पास और इस सूत्र की प्रतिध्वनि में छिपी बहुत सी बातों को समझ लेना जरूरी है। सबसे पहली बात तो यह समझ लेना जरूरी है कि न तो सम्मान तथ्य है और न असम्मान। न तो प्रशंसा तथ्य है और न निंदा। प्रशंसा तब हमें
अनुभव होती है, जब हमारे अहंकार को कोई फुसलाए, सहलाए। और निंदा हमें तब मालूम होती है, जब हमारे अहंकार को कोई गिराए, चोट पहुंचाए।
सम्मान और अपमान, दोनों ही अहंकार के अनुभव हैं। और अहंकार एक असत्य है। अहंकार जीवन में सबसे बड़ा झूठ है। जो हम हैं, उसका हमें कोई भी पता नहीं है। जो हम हैं और जिसका हमें पता नहीं, उसी को हम आत्मा कहेंगे। और जो हम नहीं हैं और मानते हैं कि हम हैं, उसी का नाम अहंकार है। अहंकार एक काल्पनिक इकाई है। इसके बिना हम जी नहीं सकते, क्योंकि वास्तविक इकाई हमारे पास नहीं है। यह परिपूरक इकाई है। हमारा असली मालिक तो हमें पता नहीं, इसलिए हमने एक झूठा मालिक निर्मित कर लिया है। हमारे असली केंद्र का तो हमें कोई अनुभव नहीं है। लेकिन बिना केंद्र के जीना बहुत मुश्किल है, असंभव है। इसलिए हमने एक झूठा केंद्र निर्मित कर लिया है। और उसी के पास हम अपने को चलाए रखते हैं, जिलाए रखते हैं।
इस झूठे केंद्र का नाम अहंकार है। इस झूठे केंद्र को जिन बातों से आनंद मिलता है, उन बातों को हम प्रशंसा कहेंगे; और जिन बातों से दुख मिलता है, उन्हें हम निंदा कहेंगे। क्योंकि अहंकार स्वयं ही एक असत्य है, उससे होने वाले सभी अनुभव असत्य हैं।
तो लाओत्से कहता है, जब कोई प्रशंसा करता है, तब हमें लगता है सुख मिल रहा है; और जब कोई निंदा करता है, तो लगता है कि दुख मिल रहा है। और ऐसा लगता है कि कोई दूसरा सुख दे रहा है, या कोई दूसरा दुख दे रहा है। लेकिन सुख और दुख का मूल कारण हमारे भीतर है-वह हमारा अहंकार है। जिस व्यक्ति का कोई अहंकार नहीं है, उसे न तो कोई सुख दे सकता है और न कोई दुख। और जिसे कोई भी सुख-दुख नहीं दे सकता, वही व्यक्ति आनंद में स्थापित हो जाता है।
हमें तो कोई भी सुख दे सकता है और कोई भी दुख। हम तो दूसरों के हाथों में कैद हैं। हम तो दूसरों के हाथों में बंधे हैं। हमारी लगाम सब दूसरों के हाथों में है। जरा सा इशारा, और दुख पैदा हो जाता है। और जरा सा इशारा,
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