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ताओ की साधबा-योग के संदर्भ में
ये दोनों अतियां अधूरी हैं। लेकिन दोनों अतियां सत्य पर पहुंचा देती हैं। छलांग अति से ही लगती है। दि एक्सट्रीम प्वाइंट, वहीं से छलांग लगती है। अगर आप पुरुष की ही यात्रा में पड़ गए हैं, तो फिर पूरी तरह पुरुष ही हो जाएं। तो पुरुषार्थ को उस जगह तक ले जाएं कि जिसके आगे जाने की जगह न रहे। वहां से छलांग हो जाएगी। अगर आप सहजता के ही आनंद को अनुभव करते हैं, तो इतने सहज हो जाएं कि साधना मात्र व्यर्थ हो जाए। तो उसी सहजता से छलांग लग जाएगी।
जो लोग पुरुषार्थ का मार्ग पकड़ेंगे, ऊर्ध्वगमन उनकी भाषा होगी, ऊपर उठना वे कहेंगे। इसलिए वे जो प्रतीक चुनेंगे, वह प्रतीक होगा लपट का, आग का। आग सदा ऊपर उठती चली जाती है। कुछ भी करो, कहीं भी जलाओ, आग भागती है ऊपर की तरफ। इसलिए भारतीय प्रतीक है अग्नि। ____ लाओत्से ने जो प्रतीक चुना है, वह है जल का। वह कहता है, पानी की भांति हो जाओ-नीचे, और नीचे, सबसे आखिरी गड्डा चुन लो। जिसके नीचे कोई जगह न हो, वहां बैठ जाओ।
सहजता अंत में बैठ कर ही उपलब्ध हो सकती है। जो आदमी ऊपर उठना चाह रहा है, वह सहज नहीं हो सकता। ऊपर उठने में संघर्ष होगा, प्रतियोगिता होगी। पीछे बैठने की कोई प्रतियोगिता नहीं है। अगर आप कहते हैं, मैं सबसे पीछे बैठना चाहता है, तो कोई शायद ही आपसे प्रतियोगिता करने आए।
लाओत्से कहता है, ऐसे हो जाओ कि लोगों को पता ही न चले कि तुम हो भी। तो अंतिम गड्डा खोज लो। निम्नतम जो जगह हो, जहां कोई जाने को राजी न हो, जहां लोग जूते उतार देते हों, वहीं बैठ रहो। किसी पद की खोज ही मत करो। ऊपर जाने की बात ही मत सोचो। वह भाषा ही गलत है।
लाओत्से ठीक कहता है। जो लोग पानी की भांति हो सकते हैं, वे भी वहीं पहुंच जाएंगे। असल में, प्रथम और अंतिम मिल जाते हैं एक जगह, एक बिंदु पर। प्रथम भी अनंत का छोर है और अंतिम भी अनंत का छोर है। प्रथम और अंतिम एक ही चीज के दो नाम हैं। यात्रा पर निर्भर करता है। अगर आप पीछे लौट कर आए, तो उसे कहेंगे प्रथम; अगर आप घूम कर, पूरा चक्कर लगा कर आए, तो कहेंगे अंतिम। तो योग कहेगा ऊपर और लाओत्से कहेगा नीचे। योग और लाओत्से में, योग और ताओ में वह जो जीवन का परम द्वंद्व है, वह जो जीवन की पोलर डुआलिटी है, उसकी अभिव्यक्ति है।
इसलिए इसमें चिंता न लें। जो प्रीतिकर लगे, वह चुन लें-जो प्रीतिकर लगे! और सदा ध्यान रखें कि जो आपको प्रीतिकर लगे, वही आपका मार्ग है। कोई कितना ही कहे, जो आपको प्रीतिकर न लगे, वह आपका मार्ग नहीं है। अपने मार्ग पर भटक जाने से भी आदमी पहुंच जाता है। दूसरे के मार्ग पर न भटके, तो भी कभी नहीं पहुंचता है। उसका कारण है। क्योंकि जो हमारा स्वभाव है, हम उसी से पहुंच सकते हैं। तो दूसरे का कभी आकर्षक भी लगे, प्रभावित भी करे, तब भी भीतर पूछ लेना चाहिए कि मेरे अनुकूल है या नहीं! क्योंकि कई बार प्रतिकूल बातें भी आकर्षक लगती हैं, अनुकूल न हों तो भी। कई बार तो इसीलिए आकर्षक लगती हैं कि प्रतिकूल हैं, अनजानी हैं, अपरिचित हैं। सदा अपनी प्रकृति को ध्यान में रख लेना जरूरी है। अगर आपको लगता है कि मैं अंतिम बैठने में भी राजी हो सकता हूं, जरा भी पीड़ा न होगी, यही मेरे लिए सुगम है; अगर आपको लगता है कि बिना आक्रमण किए, ग्राहक होकर भी मैं सत्य को पा लूंगा, मैं सत्य को खोजने न जाऊंगा, सिर्फ अपने द्वार खोल कर बैठ जाऊंगा, प्रतीक्षा करूंगा; अगर इतना धैर्य हो-धैर्य स्त्रैण गुण है, अधैर्य पुरुष का गुण है-अगर इतना धैर्य हो कि द्वार खोल कर प्रतीक्षा की जा सके, अनंत तक प्रतीक्षा करने की सामर्थ्य हो, तो इसी क्षण द्वार पर सत्य उपस्थित हो जाएगा।
लेकिन अगर प्रतीक्षा करने का बिलकुल साहस ही न हो और दरवाजे पर बैठ कर भी अधैर्य ही जाहिर करना हो, तो उससे बेहतर यात्रा पर निकल जाना है। क्योंकि दरवाजे पर भी खड़े रहे और अधैर्य भी जाहिर करते रहे और
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