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ताओ उपनिषद भाग २
प्राण बेचैन रहे, तो एक भीतरी यात्रा भी चलती रही और यात्रा नहीं की, तो एक भीतर कष्ट और संघर्ष और दुविधा बन जाएगी। इसलिए प्रत्येक को समझ लेना चाहिए। और दो ही विराट मार्ग हैं। एक मार्ग है, जिसे लाओत्से स्त्रैण मार्ग कहता है। और एक मार्ग है, जिसे वह पुरुष का मार्ग कहता है। लाओत्से की अपनी पसंद स्त्रैण मार्ग की है। और उन सभी लोगों की पसंद होगी, जिन्हें अहंकार में रस नहीं है। उनकी सभी की पसंद होगी।
इसलिए अगर लाओत्से का अनुयायी मिलेगा, तो हमारे योगी जैसा अकड़ा हुआ नहीं मिलेगा, अति विनम्र होगा। उसकी विनम्रता लेकिन सहज होगी; वह भी थोपी हुई नहीं होगी, वह भी चेष्टित नहीं होगी। हमारा योगी अगर विनम्रता भी दिखाए, तो वह आरोपित होगी। उसका कारण है कि उसका मार्ग ही असल में, अहंकार का है। और विनम्रता वह नाहक थोप रहा है, वह झंझट में पड़ रहा है, विपरीत मार्ग की बात सोच रहा है। आग की तरह का रास्ता चुना है और पानी की तरह होने की कोशिश कर रहा है। वह दिक्कत में पड़ेगा। उसकी विनम्रता झूठी होगी। उसने मार्ग चुना है अहं ब्रह्मास्मि का। वह उस यात्रा पर निकला है कि एक दिन कह सके कि मैं ब्रह्म हूं। लाओत्से का मार्ग है-एक दिन कह सके कि मैं हूं ही नहीं।
___ यह साफ खयाल में हो, तो कोई भी मार्ग पहुंचा देगा। या तो अहंकार को इतना बड़ा करो कि एक्सप्लोड हो । जाए। इतना फुलाओ फुग्गे को कि फूट जाए। हालांकि फुलाने वाला यह सोच कर नहीं फुलाता है कि फूटेगा। वह सोचता है बड़ा कर रहा हूं। लेकिन फुग्गे को फुलाए चले जाओ, फुलाए चले जाओ, उसकी एक सीमा है। तुम फुलाने के लिए ही फुला रहे होओगे, कोई फिक्र नहीं। लेकिन फुग्गा अपनी सीमा पर आएगा और फूट जाएगा, और हाथ खाली रह जाएंगे। तो कोई हर्ज नहीं है, अगर अहंकार में ही रस है, तो फिर छोटे-मोटे अहंकार से राजी मत होना। फिर अहंकार को इतना फुलाना कि पूरा ब्रह्मांड बन जाए। तो फूट जाएगा। जिस दिन कोई कह सके, अहं ब्रह्मास्मि, उसी दिन अहंकार फूट जाएगा।
. और या फिर अहंकार को भरो ही मत। उसमें जो थोड़ी-बहुत और हवा हो, उसको भी निकाल दो। लाओत्से कहता है, पीछे लौट आओ। खयाल ही छोड़ दो इसे भरने का, क्योंकि जो फूट ही जाना है, उसके लिए मेहनत क्या करनी? लेकिन कुछ लोग हैं, जो बिना मेहनत किए राजी न होंगे।
लाओत्से का एक शिष्य हुआ, लीहत्जू। लीहत्जू से किसी ने जाकर पूछा, कि हमने सुना है कि बुद्ध एक वृक्ष के नीचे बैठ कर और ज्ञान को उपलब्ध हो गए। और हमने सुना है कि कोई योगी मंत्र का जाप करके और वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप से सत्य को उपलब्ध हो गया। लीहत्जू, तुम्हारा क्या खयाल है? तो लीहत्जू ने कहा, जहां तक हम समझते हैं, मंत्र करना, साधना करनी, योगासन करना, ये उन लोगों के काम हैं, जो बिना किए नहीं रह सकते हैं। लेकिन असली बात यह नहीं है कि बुद्ध साधना करके पहुंच गए; बुद्ध बैठ गए, इसलिए पहुंच गए। असली बात, बैठ गए, इसलिए पहुंच गए। कोई योगी मंत्र पढ़ता रहा और पहुंच गया; मंत्र असली चीज नहीं है, बैठ गया, इसलिए पहुंच गया। मंत्र तो बहाना है; क्योंकि वह खाली नहीं बैठ सकता, इसलिए मंत्र पढ़ता रहा।
लीहत्जू यह कह रहा है कि जो भी पहुंचे हैं, वे इसलिए पहुंचे हैं कि वे सब छोड़ कर बैठ गए। अब कुछ लोग हैं, जो बिलकुल छोड़ कर बैठ सकते हैं, जो मंत्र भी न पढ़ेंगे। क्योंकि मंत्र भी अंततः व्यर्थ है। नाहक परेशानी उठा रहे हैं। उसको भी पढ़ने की जरूरत नहीं है। सिर्फ बैठ जाएं, कुछ भी न करें।
लेकिन बड़ा कठिन है कुछ भी न करना। वह लाओत्से का खयाल समझ में आ जाए, तो कुछ न करना इतनी सरल जैसी बात मालूम पड़ती है, इतनी सरल नहीं है, सर्वाधिक कठिन है। मंत्र तो बच्चे भी पढ़ सकते हैं। असल में, बच्चों को अगर मंत्र न दिया जाए, तो उनको बिठाया ही नहीं जा सकता है। मंत्र कुछ भी हो, चाहे खिलौना हो, चाहे कुछ हो, मंत्र कुछ देना पड़े उनको, तो वे बैठ सकते हैं। नहीं तो बैठ भी नहीं सकते। बेचैनी इतनी ज्यादा है। तो हम
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