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________________ ताओ उपनिषद भाग २ नाभि केंद्र से वर्तुल शुरू होता है, सहस्रार पर वर्तुल पूरा होता है। दोनों से छलांग लगा कर व्यक्ति वर्तुल के बाहर हो जाता है। इसलिए नाभि और सहस्रार बिलकुल दूर दिखाई पड़ते हैं हमें, क्योंकि हमारे लिए नाभि पेट में है कहीं और सहस्रार मस्तिष्क में है कहीं। और दोनों के बीच सीधी रेखा खींचें, तो बड़े फासले पर हैं। लेकिन इस शरीर की चर्चा ही नहीं हो रही है। इससे जो सूक्ष्म शरीर है, उस सूक्ष्म शरीर में नाभि और सहस्रार निकटतम बिंदु हैं। अगर हम वर्तुल बना लें, तो निकटतम हो जाएंगे। अगर हम सीधी रेखा खींचें, तो दूर हो जाएंगे। इस शरीर में हम सीधी रेखा खींचते हैं, तो दूर मालूम पड़ते हैं। लेकिन सूक्ष्म शरीर में वर्तुल निर्मित हो जाता है। सूक्ष्म शरीर ऊर्जा-शरीर है। पदार्थ नहीं, शक्ति का शरीर है। वहां वर्तुल निर्मित हो जाता है। ये दोनों छोर निकटतम हैं। लाओत्से कहता है : पहले छोर पर लौट आओ। योग कहता है : अंतिम छोर पर चले जाओ। और दो तरह के व्यक्ति हैं; इसलिए दोनों ही बातें उपयोगी हैं। कुछ लोग हैं, जो पहले छोर पर लौटना बहुत मुश्किल पाएंगे; विशेषकर पुरुष चित्त वाले लोग पहले पर लौटना बहुत मुश्किल पाएंगे। इसलिए लाओत्से स्त्रैण व्यक्तित्व की बात करता है। पुरुष आगे बढ़ना चाहेगा, पीछे नहीं लौटना चाहेगा। लेकिन पुरुष के लिए मार्ग नहीं है सत्य तक पहुंचने का, ऐसा नहीं है। उसका मार्ग भी है। लाओत्से उस मार्ग का प्रस्तोता नीं है। लाओत्से स्त्रैण व्यक्तित्व का प्रस्तोता है। वह कहता है, पीछे लौट आओ। जब छलांग ही लगानी है, तो आगे बढ़ने का श्रम भी क्या करना? यह श्रम तो पीछे लौट कर भी हो सकता है। और ध्यान रखें, पीछे लौटने में श्रम नहीं पड़ता, आगे जाने में श्रम पड़ता है। पीछे लौटने में कोई श्रम नहीं पड़ता। क्योंकि आगे जाने के लिए शक्ति लगानी पड़ती है। पीछे लौटने के लिए तो हम सिर्फ शक्ति लगाना बंद कर दें, हम तत्काल पीछे लौट आते हैं। जो लोग सरल हो सकते हैं बिना साधना किए, लाओत्से का मार्ग उनके लिए है। जो सरल भी नहीं हो सकते बिना साधना किए, योग का मार्ग उनके लिए है। इसलिए जान कर हैरानी होगी कि भारत ने योग की इतनी बड़ी परंपरा पैदा की, विराट परंपरा पैदा की, बड़ी साधना के सूत्र खोजे, लेकिन भारत में इतनी लंबी परंपरा के बीच भी स्त्रैण चित्त की कोई चिंता नहीं की गई। यह अधूरी है बात। और इसीलिए जैनों के चौबीस तीर्थंकर पुरुष हैं, हिंदुओं के अवतार पुरुष हैं, बुद्ध पुरुष हैं। हिंदुस्तान में एक भी स्त्री अवतार और तीर्थंकर नहीं है। वरन मान्यता तो ऐसी बन गई धीरे-धीरे-और बन ही जाएगी-अगर पुरुष के चित्त का हम मार्ग चुनेंगे, तो यह मान्यता बन ही जाएगी कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं हो सकता। इसलिए जैन मानते हैं कि स्त्री की देह से मोक्ष नहीं हो सकता। स्त्री को पहले एक जन्म पुरुष का लेना पड़ेगा और तब ही मोक्ष हो सकता है। इस तरह का खयाल है, मुझे तो लगता है एकदम ठीक है कि जैनों में एक तीर्थंकर मल्लीनाथ पुरुष नहीं थे, स्त्री थे। मल्लीबाई उनका नाम था। लेकिन जैन यह मान ही नहीं सकते हैं कि स्त्री भी मोक्ष पा सकती है। इसलिए मल्लीबाई का नाम मल्लीनाथ कर दिया। स्त्री को पुरुष कर दिया। श्वेतांबरों और दिगंबरों में बुनियादी झगड़ों में एक झगड़ा यह भी है, श्वेतांबर मानते हैं कि वे मल्लीबाई ही थीं और दिगंबर मानते हैं वे मल्लीनाथ थे। यह झगड़ा बहुत अनूठा है, एक व्यक्ति के संबंध में झगड़ा कि वह स्त्री था या पुरुष था! लगता ऐसा है कि वे स्त्री ही रहे होंगे। लेकिन जो परंपरागत दृष्टि है, वह यह स्वीकार नहीं कर सकी कि स्त्री के शरीर से मुक्ति कैसे हो सकती है। असल में, सारी धारा पुरुष के चित्त की है। लाओत्से स्त्रैण चित्त की बात कर रहा है। लाओत्से कहता है, साधना करके अगर सरल होना पड़े, तो वह सरलता बड़ी जटिल हो गई। अगर मुझे सरल होने के लिए भी प्रयास करना पड़े, तो वह सरलता सरलता न रही। सरलता का मतलब ही यह है कि जो मुझे कुछ न करना पड़े और उपलब्ध हो जाए। सहज का अर्थ ही यही होता है कि मुझे कुछ करना न पड़े और उपलब्ध हो जाए। अगर करके उपलब्ध हो, तो सहज कहना व्यर्थ है। तो लाओत्से दूसरी अति का पोषक है। 118
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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