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ताओ उपनिषद भाग २
नहीं; आप तीन महीने अकेले बंद हों, तब आपको पता चलेगा। बहुत संभावना तो यह है कि कोई स्त्री नहीं निकलेगी और सुंदर स्त्रियां आप अपनी कल्पना में ही मौजूद कर लेंगे। और उन्हीं को आस-पास घुमाने लगेंगे।
और फिर आप कंपित होने लगेंगे। यह हवा आपकी ही बनाई हुई है। यह लौ के आस-पास अपनी ही हवा के झोंके आप पैदा कर रहे हैं।
तीन महीने, वैज्ञानिक कहते हैं, एक आदमी को अगर बिलकुल ही डिप्राइव कर दिया जाए उसके सब अनुभव से, तो वह सभी अनुभवों को खुद पैदा कर लेगा। वह बातें करने लगेगा उन लोगों से...।
अपने घर में आप अकेले चुप नहीं बैठते हैं और लोगों से यही कहते हैं कि क्या करें, मित्र आ गए, इसलिए बातचीत करनी पड़ी। हालांकि आप प्रतीक्षा करते हैं। जिस दिन मित्र नहीं आते, उस दिन प्रतीक्षा करते हैं कि अब तक क्यों नहीं आए। तीन महीने आपको बंद कर दिया जाए, तो आप काल्पनिक मित्र पैदा कर लेंगे और उनसे बातचीत शुरू हो जाएगी। दोनों काम आप करेंगेः अपनी तरफ से भी बोलेंगे, उनका जवाब भी देंगे। यह हो जाएगा।
यह मैं यह कह रहा हूं कि हमारे चित्त की जो दशा है, हमारे आचरण की जो दशा है, वह डांवाडोल है। कंपन हमारा स्वभाव हो गया है। वही हमारा आचरण है।
लाओत्से कहता है, कंपित होना ही आचरण का नष्ट हो जाना है; अकंप होना ही आचरण है।
अकंप का क्या अर्थ हुआ? अकंप का क्या यह अर्थ हुआ कि यह खाना मत खाओ, वह पीना मत पीओ, यह कपड़े मत पहनो? नहीं। लेकिन कोई कपड़ा ऐसा न हो कि जो कंपित करे। और कोई खाना ऐसा न हो, जो कंपित करे। क्या अकंप होने का यह मतलब है कि किसी के साथ मत रहो? नहीं, साथ सबके रहो, लेकिन किसी का साथ कंपित न करे। और अगर किसी का साथ खो जाए, तो कंपन का पता भी न चले। अकंप का अर्थ होता है भाग जाना नहीं। अकंप का अर्थ होता है, ये सारे तूफान चलते रहें, चलते रहें, मेरी चेतना की लौ धीरे-धीरे थिर हो जाए।
यह हो जाती है। अगर हमने लाओत्से की सलाह मानी और इंद्रियों को विश्राम दिया, ताजा रखा, भीतर की इंद्रियों को जगाया, अगर हम पागलपन की चीजों के पीछे न दौड़े, अगर हमने व्यर्थ की चीजों के संग्रह को अपना मोह न बनाया, अगर हम वस्तुओं के लिए दीवाने न हुए, तो धीरे-धीरे वह आचरण उपलब्ध होता है, जो कि भीतर चेतना को थिर कर जाता है।
यह आचरण की थिरता, यह ठहर जाना चेतना का बड़ी और बात है! और जब किसी की चेतना ऐसी ठहरती है, तो वह आपको निंदा से नहीं देखता। और वह यह भी नहीं देखता कि आप यह खा रहे हैं, यह पी रहे हैं, इसलिए पापी हो गए हैं। यह कर रहे हैं, वह कर रहे हैं, इसलिए पापी हो गए हैं। नहीं, वह तो एक ही पाप जानता है कि आप चौबीस घंटे कंपित हो रहे हैं, बस। इससे फर्क नहीं पड़ता कि आप किस चीज से कंपित हो रहे हैं। चीजें बदल सकती हैं। कंपन जारी रह सकता है। कंपन नहीं हो जाना चाहिए, शून्य हो जाना चाहिए।
'इस कारण संत बहिर-नेत्रों की दुष्पूर आकांक्षाओं की तृप्ति नहीं करते।' इसमें शब्द देखने जैसे हैं। 'इस कारण संत बहिर-नेत्रों की-बाहर की इंद्रियों की-दुष्पूर आकांक्षाओं की...।'
ऐसी आकांक्षाओं की जो कभी पूरी ही नहीं होतीं, जो स्वभाव से दुष्पूर हैं, जिनके पूरे होने की नियति में ही कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसा नहीं है कि हमारे श्रम की कमी है, कि हमारी दौड़ की क्षमता नहीं है। नहीं, वस्तु ही दुष्पूर है। जैसे कि कोई आदमी एक मरुस्थल में प्यास से भरा हुआ देखता है सामने भरा हुआ सरोवर। भागता है, दौड़ता है, पहुंचता है वहां, लेकिन सरोवर वहां नहीं है और आगे दिखाई पड़ने लगा। इसमें इस आदमी के दौड़ने में कोई कमी नहीं है, इस आदमी की प्यास में कोई कमी नहीं है, इस आदमी के श्रम, उद्योग में कोई कमी नहीं है। लेकिन
जलते रहें, चलते रह)
और इंद्रियों को
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