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ऐंद्रिक भूत्व की बही-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूख की फिक्र
खाते हैं, यह पहनते हैं, यह पीते हैं। तो यह भेद है आपके आचरण का। और अक्सर यह जो साधु है, यह खतरनाक हो जाता है। क्योंकि यह आदमी आपकी ही हैसियत का है। अगर यह सिगरेट पीता, तो आप ही जैसा होता। यह सिगरेट नहीं पीता है, तो सिगरेट न पीने का जो कष्ट उठा रहा है, जो पीड़ा झेल रहा है, उसको यह तप कहता है, उसको तपश्चर्या कहता है।
... अब सिगरेट न पीना कोई तपश्चर्या है? सच तो यह है कि सिगरेट पीना ही तपश्चर्या है। धुएं को डालना और निकालना काफी तप है। साधु-संन्यासी पुराने धूनी रमा कर बैठते थे। आप अपनी धूनी साथ में लिए, पोर्टेबल धूनी अपनी साथ लिए घूम रहे हैं, तप कर रहे हैं। आग और धुआं दोनों मौजूद हैं। और जहर पी रहे हैं। एक आदमी यह नहीं पी रहा है, वह तपस्वी है! वह आपके सिर पर खड़ा हो जाएगा। वह जब भी आपकी तरफ देखेगा, तो उसकी आंखों में नर्क की तरफ का इशारा रहेगा कि सीधे नर्क जाओगे। और कहीं कोई उपाय नहीं है।
आचरण इन क्षुद्र चीजों से निर्मित नहीं होता। कम से कम लाओत्से जैसे व्यक्ति की धारणा आचरण की यह नहीं है। लाओत्से की आचरण की धारणा बड़ी अदभुत है। लाओत्से कहता है, जो लोग बाहर की वस्तुओं को पाने में दौड़ते रहते हैं, दुर्लभ, विचित्र वस्तुओं को पाने में दौड़ते रहते हैं, उनका आचरण भ्रष्ट हो जाता है। तो इसका मतलब यह हुआ कि जो बाहर की वस्तुओं को पाने के लिए नहीं दौड़ते, वे आचरण को उपलब्ध हो जाते हैं। तो आचरण का अर्थ हुआ, जो इतने तृप्त हैं अपने भीतर कि बाहर की कोई चीज उन्हें पुकारती नहीं। एक अंतःतृप्ति का नाम आचरण है। एक सेल्फ कंटेंटमेंट का नाम आचरण है। इतना तृप्त है कोई व्यक्ति अपने भीतर कि बाहर की कोई चीज उसके लिए दौड़ नहीं बनती-कोई चीज दौड़ नहीं बनती। इसका मतलब हुआ कि कोई चीज उसे दौड़ा नहीं सकती है। कोई चीज इतनी महत्वपूर्ण नहीं है कि उसे दौड़ना पड़े। जो इतना थिर है अपने में कि जगत की कोई चीज उसे दौड़ा नहीं सकती। लाओत्से कहता है कि उसके पास आचरण है, करेक्टर है। उसके पास वयूँ है, उसके पास गुण है।
निश्चित ही, अगर कोई व्यक्ति अपने में इतना भरा-पूरा है, कहीं कोई कमी अनुभव नहीं करता कि किसी चीज से भरी जाए, तो उसके पास एक आत्मा होगी, एक इंटिग्रेटेड विल, उसके पास एक समग्रीभूत संकल्प होगा। उसके पास एक भीतर व्यक्तित्व होगा, एक स्वर होगा, एक ढंग होगा। उसका जीवन एक ऐसी ज्योति की तरह होगा, जिसे हवा के झोंके हिला नहीं सकते।।
हमारी ज्योति ऐसी है कि हवा के झोंके भी न हों, तो भी कंपती रहती है। असल में, हवा के झोंके न हों, तो हमको बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है कि कोई क्या कहेगा, बिना ही झोंके के कंप रहे हैं। हम झोंकों को बुलाते रहते हैं कि आओ! ताकि कम से कम यह बहाना तो रहे कि हम नहीं कंप रहे हैं, ये हवा के झोंके से हम कंप रहे हैं।
अगर आदमी को चौबीस घंटे एक कमरे में बंद कर दिया जाए, तो बड़ी हैरानी की बात कि अकेला रह कर भी वह बीच-बीच में क्रोधित हो जाता है—अकेला रह कर! तीन महीने अगर आपको बंद कर दिया जाए, तो आपको पहली दफे पता चलेगा कि क्रोध के लिए किसी दूसरे की जरूरत ही नहीं है। और जिंदगी भर आप यही सोचते रहे कि फलां आदमी ने यह कह दिया, इसलिए मैं क्रोधित हो गया। नहीं तो मैं क्यों क्रोधित होता? यह सिर्फ हवा का बहाना ले रहे हैं आप।
कभी अकेले तीन महीने रह कर देखें और नोट करें, तो आप पाएंगे कि अचानक क्रोधित होते हैं, अचानक कामवासना से भर जाते हैं। तब आपको पता चलेगा कि यह सुंदर स्त्री जो दरवाजे से निकल गई, इसने हवा का झोंका नहीं भेजा था। आप तैयार ही थे, बहाना ही खोज रहे थे कि कोई हवा का झोंका आ जाए, तो मैं कह सकू कि इसमें मेरा क्या कसूर है? यह सुंदर स्त्री यहां से निकली क्यों? यह सुंदर क्यों है? इसने ऐसा साज-श्रृंगार क्यों किया? अब मैं क्या कर सकता हूं?
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