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ताओ उपनिषद भाग २
चित्त को चौबीस घंटे चारों तरफ कुछ घट रहा है, जो बुलाता है, दौड़ाता है। आप दौड़ने को सदा तत्पर हैं। विश्राम तो आपको तभी होता है, जब सौभाग्य से बाहर कोई दौड़ नहीं होती।
मगर वह आपके हाथ में नहीं है। वह आपके हाथ में नहीं है। वह बिलकुल नियति है, कहें कि भाग्य है। रास्ते पर चलता एक आदमी गाली दे जाए, दौड़ हो जाएगी शुरू। वह आपके हाथ में नहीं है। करोड़ों-करोड़ों लोग हैं। लोग ही नहीं हैं, पड़ोसी का कुत्ता ही जोर से भौंकने लगे, तो रात उसका भी विचार चलता है कि क्यों भौंक रहा था! घर आएं और घर का कुत्ता पूंछ ही न हिलाए, तो भी चिंता हो जाती है कि आज कुत्ते ने पूंछ नहीं हिलाई! उससे भी हमारे संबंध बन जाते हैं। हमारा अहंकार उससे भी रस लेने लगता है। अगर कुत्ते ने पूंछ नहीं हिलाई, तो गड़बड़ हो गई, सारी जिंदगी बेकार है। घर आता है आदमी, तो देखता आता है कि कुत्ता पूंछ हिला रहा कि नहीं हिला रहा। तरह-तरह के कुत्ते हैं, तरह-तरह की पूंछे हैं। छोटी सी बात, लेकिन चित्त पागल है, तो पागल हो सकता है। कोई भी बहाना काफी है, कोई भी बहाना काफी है।
लेकिन इसके पागल होने का जो सीक्रेट, नो राज है, वह एक ही है। जब तक आप अपने से बाहर किन्हीं चीजों के लिए दौड़ रहे हैं, तब तक आप अपने को पागल किए चले जाएंगे। और जितने आप पागल हो जाएंगे, उतने ही दुखी, उतने ही संताप से भर जाएंगे, उतने ही बड़े नर्क में आपका निवास हो जाएगा।
'दुर्लभ पदार्थों की खोज आचरण को भ्रष्ट कर जाती है।'
असल में, आचरण बड़ी गहरी चीज है। आचरण का ऐसा मतलब नहीं है कि एक आदमी सिगरेट नहीं पीता, तो बड़ा आचरणवान है। ऐसा कुछ मतलब नहीं है। क्योंकि कभी-कभी तो ऐसा हो सकता है कि सिगरेट न पीने के कारण वह जो कर रहा हो, वह और भी बड़ी आचरणहीनता हो। क्योंकि हमको सब्स्टीट्यूट खोजने पड़ते हैं, विकल्प खोजने पड़ते हैं।
इसलिए आपने अनुभव किया होगा कि अक्सर जो लोग सिगरेट पीते हैं, पान खाते हैं, चाय पीते हैं, काफी पीते हैं, कभी थोड़ी शराब भी पी लेते हैं, वे ज्यादा मिलनसार आदमी होते हैं। जो इनमें से कुछ भी नहीं करते, उनसे दोस्ती बनानी तक मुश्किल है, वे मिलनसार होते ही नहीं। बहुत अकड़े हुए होते हैं। क्योंकि वे सिगरेट नहीं पीते, चाय नहीं पीते, तो उनकी रीढ़ बिलकुल अकड़ जाती है, झुकती ही नहीं। वे दूसरे की तरफ ऐसे देखते हैं, जैसे वे आसमान पर खड़े हैं, दूसरा कीड़ा-मकोड़ा है। उनको आदमी नहीं दिखाई पड़ते। आपने सिगरेट पी, गए। आप आदमी नहीं रहे, कीड़े-मकोड़े हो गए। आप पान खा रहे हैं, आप गए। आपकी कोई स्थिति न रही। तो इससे तो बेहतर था यह आदमी सिगरेट पी लेता। सिगरेट पीने से इतना कुछ नुकसान न था। यह जो अहंकार पी रहा है, यह बहुत खतरनाक है, जहरीला है।
इसलिए तब तक मैं किसी आदमी को भला नहीं कहता, जब तक इतना भला न हो कि दूसरे की बुराई को पाप मानने की प्रवत्ति में न पड़े। तब तक कोई आदमी भला नहीं है. तब तक आचरणवान नहीं है। आचरण का एक ही अर्थ है कि इतना भला है कि दूसरे की बुराई को भी बुराई नहीं देखता। दूसरे की निंदा करने की क्षमता का खो जाना आचरण है। तब तो हमारे तथाकथित साधु-संन्यासी आचरण में नहीं टिक सकेंगे, हैं भी नहीं। आपके और उनके आचरण में भेद नहीं है; सिर्फ चीजों का भेद है। जो आप कर रहे हो, उसकी वजह से आप पापी हो; वही वे नहीं कर रहे हैं, इसलिए पुण्यात्मा हैं। लेकिन टिके दोनों ही सिगरेट पर हैं; वे नहीं पी रहे हैं, आप पी रहे हो। लेकिन दोनों का आचरण सिगरेट से बंधा है।
___ अगर आप अपने साधु की साधुता पूछने जाएं, तो पता क्या चलेगा? वह यह नहीं खाता, यह नहीं पीता, यह नहीं पहनता, यह उसकी साधुता है! और आपको वह साधु लगता भी है। लगना स्वाभाविक भी है, क्योंकि आप यह
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