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ऐंद्रिक भूख की नहीं-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूनव की फिक्र
यह बड़े मजे की बात है। कोई भी लौटना नहीं चाहता। सब आगे जाना चाहते हैं। क्योंकि आगे जाने में अहंकार को तृप्ति मिलती है। लौटना शब्द ही मन को विषाद से भर देता है। और कोई कहे, लौट आए? तो ऐसा लगता है कि समाप्त, जिंदगी बेकार चली गई। बढ़ो, तो अहंकार रोज नई पुकार देता है और नई मृग-मरीचिका दिखाई पड़ने लगती है, उसे पाना है। फिर आदमी दौड़ता चला जाता है। यह दौड़, बाहर कुछ भी पाने की दौड़ अंततः मनुष्य को पागल कर जाती है।
पागल होने का मतलब ही इतना है कि ऐसा आदमी जो अपने से इतना बाहर चला गया कि अब अपने पास, अपने भीतर ही लौटने का उसे कुछ पता नहीं रहा। वह अपना घर ही भूल गया कि मेरा घर कहां है? अब उसे एक ही बात पता है कि वह दौड़ सकता है, रुक नहीं सकता। अब उसे एक ही बात पता है कि अगर यह चीज नहीं मिली, तो दूसरी चीज पाने को दौड़े। अगर मिल गई, तो भी दूसरी चीज पाने को दौड़े। अब वह दौड़ ही सकता है। अब उसका चित्त एक फीवर, एक ज्वर से भरा है, एक रोग से भरा है। और दौड़े बिना उसको कोई चारा नहीं। रुक नहीं सकता, ठहर नहीं सकता है।
एक मेरे मित्र हैं। मिलिटरी में कर्नल हैं। उनकी पत्नी मुझे सुनने आती थीं। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हारे पति कभी-कभी मुझे मिलने तो आते हैं, कभी-कभी तुम्हें छोड़ने भी आते हैं, लेकिन कभी उन्हें मैंने बैठा नहीं देखा कि कभी उन्होंने सुना हो बैठ कर। उनकी पत्नी ने कहा, वे बैठ नहीं सकते। कर्नल हैं, वे चलते रहते हैं। वे आपको बहुत सुनना चाहते हैं। टेप करके मैं ले जाती हूं, वे लगा लेते हैं टेप और कमरे में टहलते रहते हैं, तो सुन पाते हैं। वे इतना घंटे भर एक कुर्सी पर बैठ नहीं सकते। और फिर आपके सामने उनको अच्छा भी नहीं लगता कि वे करवट बदलते रहें पूरे वक्त। और वे दस-पांच दफे बीच में उठ कर बाहर जाएं, भीतर आएं, तो वह उन्हें अशोभन भी लगता है। लेकिन वे बैठ नहीं सकते।।
हम सबका चित्त ऐसी ही हालत में हो जाता है। बैठ नहीं सकता, रुक नहीं सकता, विश्राम नहीं कर सकता। और-और-और, हम भागे चले जाते हैं।
लाओत्से कहता है, मन पागल हो जाता है।
(पागल का एक ही अर्थ है कि जो विश्राम करने में असमर्थ हो गया। अगर आप विश्राम करने में समर्थ हैं, तो आप समझना कि आप पागल नहीं हैं। अगर विश्राम के आप मालिक हैं, तो समझना कि आप पागल नहीं हैं। और अगर आप विश्राम करने में समर्थ नहीं हैं और अपनी मौज से विश्राम नहीं कर सकते, तो समझना कि पागलपन की कोई न कोई मात्रा आपके भीतर है। मात्रा का फर्क हो सकता है, लेकिन मात्रा है। अगर आप इतने भी मालिक अपने नहीं हैं कि लेट जाएं और कहें कि शरीर को छोड़ दिया विश्राम में और शरीर विश्राम में छूट जाए, अगर आप इतने भी मालिक नहीं हैं कि आंख बंद कर लें और आंखों से कह दें कि सो जाओ तो आंखें सो जाएं, तो आपके भीतर पागलपन की एक मात्रा है।।
मात्रा कम-ज्यादा हो सकती है। मात्रा कभी भी बढ़ सकती है। और चौबीस घंटे में घटती-बढ़ती रहती है। किसी दिन आसानी लगती है विश्राम करने में, किसी दिन बहुत मुश्किल हो जाता है। घटनाएं चारों तरफ घटती रहती हैं। किसी दिन ऐसी घटना घटती है कि पागलपन ज्यादा तेजी से दौड़ने लगता है। किसी ने इतना ही कह दिया कि पता है तुम्हें कि नहीं, कोई कहता था कि तुम्हारे नाम लाटरी खुल गई है! मन एकदम दौड़ पड़ेगा पूरे पागलपन से। खरीद लेगा चीजें, जो कभी नहीं खरीदनी चाहीं। न मालूम क्या-क्या कर डालेगा! फिर उस रात नींद नहीं आ सकती। लाटरी अभी मिली नहीं, लेकिन उस रात नींद नहीं आ सकती। अब विश्राम के आप मालिक न रहे। लाटरी ने बड़ी दौड़ को गति दे दी।
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