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ऐंद्रिक भूनव की बही-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भून्य की फिक्र
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द्वार खुलता है। बाहर के स्वाद से जो बचेगा, छुट्टी लेगा, थोड़े समय के लिए बाहर के स्वाद को बिलकुल भूल जाएगा, कबीर ने कहा है, उसे भीतर के अमृत का अनुभव शुरू होता है, उसे भीतर अमृत बरसने लगता है। भीतर भी एक मिठास है; पर इसे जरा पहचानना कठिन है।
कभी आपने खयाल किया कि जब आप क्रोध में होते हैं—पर शायद खयाल नहीं किया होगा कि क्रोध का कोई स्वाद भी होता है! क्रोध का भी स्वाद होता है। अगर आप बहुत क्रोध में भरे हों, तो एक क्षण क्रोध को भूल कर जरा आप आंख बंद कर लें और स्वाद लेने की कोशिश करें। तो आपका मुंह सूखा हुआ होगा। तिक्त, बासापन पूरे मुंह में फैल गया होगा। मधुरता का कहीं कोई पता नहीं चलेगा। जब कभी आप प्रेम में हों, तब एक क्षण आंख बंद कर लें, प्रेम का भीतर स्वाद अनुभव करने की कोशिश करें। प्रेम का अपना स्वाद है। तब एक मधुरिमा भीतर घुलती हुई मालूम होगी। एक अपरिचित, अनजान, अदृश्य मिश्री भीतर घुल गई हो।
इसका क्रोध से और इस प्रेम के स्वाद का अंतर आपको स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। तब आप प्रत्येक भाव-दशा का स्वाद अनुभव कर सकते हैं। ध्यान का भी एक स्वाद है। तनाव का भी एक स्वाद है। और जब समस्त विचार खो जाते हैं और समस्त इंद्रियां शांत हो जाती हैं, तो जो ध्यान का स्वाद आता है, उसका नाम अमृत है।
उसका अमृत दो कारण से नाम है। एक तो उससे मधुर कोई स्वाद नहीं। और दूसरा इस कारण भी कि उस स्वाद के मिलते ही पता चलता है कि मेरी कोई मृत्यु नहीं, मैं नहीं मर सकता हूं। मृत्यु मेरी असंभव है। उस स्वाद का अनुभव ही तय कर जाता है कि मृत्यु असंभव है। जो मरता है, वह केवल यंत्र है; मैं पुनः-पुनः शेष रह जाता हूं।
लेकिन अगर हमने अपनी सारी शक्ति बाहर की इंद्रियों में ही व्यतीत कर दी हो, अगर हमने अपनी सारी शक्ति बाहर की इंद्रियों में ही व्यय कर दी हो, और हम थक गए हों, तो हमें भीतर की इंद्रियों का तो कभी खयाल ही नहीं आता। और शक्ति भी नहीं बचती।
हम सभी को पता है, निरंतर यह होता है, अगर कोई आदमी अंधा होता है, तो उसके कान ज्यादा तीव्र हो जाते हैं। वह ज्यादा सुन पाता है। अंधे आदमी आपके पैर की आवाज से पहचान लेते हैं कि कौन आ रहा है। आंख वाला नहीं पहचान सकता। अंधा पहचानने लगता है कि कौन आ रहा है। अंधा आवाज से जानने लगता है कि कौन बोल रहा है। अंधा आवाज के द्वारा दिशा का ज्ञान कर लेता है। अंधा सड़क पर चल भी सकता है, क्योंकि लोगों के पैर की आवाज उसे अनभव होने लगती है।
अंधे का स्पर्श-बोध भी बढ़ जाता है। अंधा दीवार के थोड़ा करीब आता है, तो उसे एहसास होने लगता है कि टक्कर होने वाली है। आपको नहीं होगा। अंधा अभी दीवार से दूर है, लेकिन दीवार के करीब आने के पहले ही उसके भीतर कोई गहन स्पर्श होने लगता है कि दीवार करीब है और टक्कर होगी। अंधे को आप चलते हुए देखें, तो ऐसे वह चलता जाएगा, दीवार जैसे ही करीब आएगी, उसकी लकड़ी उठ जाएगी और वह टटोलना शुरू कर देगा। दीवार के पास सघनता का हवा में उसे कुछ स्पर्श हो रहा है, जिसका हमें कोई पता नहीं चलता।
अगर आप किसी आंख वाले आदमी से मुस्कुराते रहें और उसका हाथ हाथ में ले लें, तो आप उसे धोखा दे सकते हैं। हो सकता है भीतर आपके बिलकुल मुस्कुराहट न हो, जरा भी प्रेम न हो, यह सिर्फ दिखावा हो; लेकिन वह आदमी आपका चेहरा देख कर धोखे में आ जाएगा। अंधे आदमी को आप धोखा नहीं दे सकते। अंधा आदमी आपके हाथ से पहचान लेगा कि यह आदमी प्रेमपूर्ण है या नहीं है। आंखों वालों के धोखे आंखों वालों के ही काम आ सकते हैं। अंधे आदमी को आप धोखा नहीं दे सकते उतनी आसानी से। क्योंकि उसके जांचने के ढंग अलग हैं और आपके धोखा देने के ढंग अलग हैं, दोनों कहीं मिलते नहीं। इसलिए अंधा आदमी अक्सर प्रज्ञावान हो जाता है। प्रज्ञावान इसीलिए हो जाता है कि उसके पास कुछ ऐसी समझ होती है, जो हमारे पास नहीं होती।
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