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ताओ उपनिषद भाग २
वहां साधक; तंत्र के साधक...उनकी साधना का एक हिस्सा है कि समस्त तरह के नशों को लेने के बाद भी होश कायम रहना चाहिए। तो शराब तंत्र की साधना का एक अंग है। वे इतनी शराब पीने के अभ्यस्त हो जाते हैं कि शराब तो फिर उन्हें पानी जैसी हो जाती है। किसी तरह का कोई परिणाम नहीं होता। इतना गांजा पीने लगते हैं, इतनी अफीम खाने लगते हैं कि कोई परिणाम ही नहीं होता। और तब उनको अपने पास सांप पाल कर रखने होते हैं। उनसे जीभ पर कटा लेते हैं, तब उन्हें थोड़ा सा नशे का मजा आता है। तो सांप पाल कर रखना पड़ता है। उससे कम में काम नहीं चलता। फिर उसमें भी जो और आगे निकल जाते हैं, उनको छोटे-मोटे सांप भी काम नहीं देते। फिर तो भयंकर जहरीले सांप चाहिए, जो दूसरे कोई को काट लें, तो आदमी मर जाए। लेकिन ये साधक इस जगह भी पहुंच जाते हैं कि सांप काटते ही मर जाता है। तभी उनको थोड़ा सा स्वाद होता है।
हम अपनी इंद्रियों को इतना भी मार सकते हैं। हम सब ने थोड़ी-बहुत दूर तक मारा हुआ है। इसलिए जिनको हम शिष्ट अनुभव कहें, उदार अनुभव कहें, वे हमें होते ही नहीं। वे हमें होते ही नहीं। तीव्र अनुभव चाहिए। अगर बहुत मधुर वीणा बजती हो, तो हमें कुछ अनुभव नहीं होता, जॉज! जब पूरी हुड़दंग हो और पूरा पागलपन हो, तब थोड़ा सा हमें होश आता है कि कुछ आवाज हो रही है। सब मर गया है भीतर।
लाओत्से कहता है, रंग मार जाते आंखों को, स्वर कानों को बहरा कर देते, स्वाद रुचि को नष्ट कर जाते...।
यह हमारी इंद्रियों की जो मृत्यु है, यह हमारे मरने के पहले ही हमें एक कब्र में बिठा देती है। फिर हम जीते चले जाते हैं, लेकिन ताबूत के भीतर, मरे हुए, अपनी-अपनी कब्र को ढोते हुए, अपनी-अपनी लाश को घसीटते हुए। अगर हम सोचेंगे अपने को तो पता चलेगा।
इसके दोहरे दुष्परिणाम हैं। पहला तो मैंने कहा कि जीवन का जो अनुभव है, वह क्षीण हो जाता; अस्तित्व की जो प्रतीति है, वह अवरुद्ध हो जाती। और मृत्यु का जो महा अनुभव है, जो होना ही चाहिए, जिसने मृत्यु का अनुभव नहीं लिया, वह जीवन के गहरे अनुभव से वंचित रह गया। उसे जीवन का सत्य दिखाई ही नहीं पड़ेगा। उसने सिर्फ जीवन की परेशानी जानी और जीवन का परम विश्राम अनजाना रह गया। उसने दौड़ तो जानी, लेकिन विश्राम का क्षण नहीं जाना। तो मृत्यु से हम अपरिचित रह जाते हैं। यह तो एक दुष्परिणाम होता है, जो बहुत स्पष्ट है। .
दूसरा दुष्परिणाम और भी गहन है। और वह यह है कि हमारी प्रत्येक इंद्रिय, कहें कि द्विमुखी है। हमारी आंख बाहर भी देखती है और हमारी आंख के भीतर वह आंख भी है जो भीतर भी देखती है। हमारे कान बाहर भी सुनते हैं और हमारे कान के पास वह अंतर-इंद्रिय भी है जो भीतर भी सुनती है।
कान बिलकुल बंद कर दें, बिलकुल बंद कर दें कि बाहर से जरा सी भी आवाज न आए, तो भी हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती रहेगी। अब यह बाहर से नहीं आ रही, क्योंकि बाहर तो हथौड़े भी पड़ रहे हैं, तो सुनाई नहीं पड़ रहा है। अब यह भीतर से आ रही है। आंख बिलकुल बंद कर लें, सारे चित्र बाहर से जो पैदा हुए हैं, उनको भी छोड़ दें, सब रूप-आकार बंद हो जाएं, तब भी भीतर नए अनुभव दिखाई पड़ने शुरू हो जाते हैं। नए रंग, जो इंद्रधनुष में नहीं हैं। नया प्रकाश, जो हमने बाहर नहीं जाना। नया अंधकार, इतना गहन, जितना बाहर कभी घटित नहीं होता। इनकी यात्रा भीतर शुरू हो जाती है। ठीक प्रत्येक इंद्रिय अपने भीतर भी अनुभव करने में सक्षम है। लेकिन चूंकि हम बाहर इतने उलझे रहते हैं कि हम धीरे-धीरे यही भूल जाते हैं कि भीतर की इंद्रिय के अनुभव का भी एक जगत था, जो बिना खुला ही रह गया।
तो लाओत्से दूसरी बात इसलिए कह रहा है कि जो लोग रंगों को देख-देख कर आंखों को अंधा कर लेंगे, उनकी बाहर की आंख तो अंधी होगी ही, भीतर की आंख बिना खुली ही रह जाएगी। बाहर की आंख को जो विश्राम देगा, उसकी भीतर की आंख सक्रिय होती है। बाहर के कान को जो विश्राम देगा, उसके भीतर नाद के अनुभव का
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