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________________ ऐंद्रिक भूख की नहीं-बाभि-केंद्र की आध्यात्मिक भूनव की फिक्र जो साधक अमृत की खोज पर निकला है, जिसने जीवन के परम ताओ को, परम ऋत, परम धर्म को खोजना चाहा है, उसे अपनी इंद्रियों को प्रतिपल ताजा और युवा रखना जरूरी है। तो मृत्यु का अनुभव हो सकेगा और जीवन का भी। यह भी बड़े मजे की बात है कि जो लोग दिन-रात रंग को देखते रहते हैं, उनके रंग की आंख ही नहीं मरती, रंग का स्वाद भी मर जाता है, रंग की प्रतीति भी मर जाती है। बोथली हो जाती है, धार नहीं रह जाती। इसलिए बच्चा जब पहली दफे जगत को देखता है, तो जैसा रंगीन होता है, वैसा जगत फिर हम कभी भी नहीं देख पाते। बच्चा जब जगत को छूता है, तो स्पर्श में जैसी पुलक अनुभव होती है, वैसी फिर हमें कभी अनुभव नहीं हो पाती। बच्चा जब स्वाद लेता है, तो स्वाद जैसा उसके रोएं-रोएं को आंदोलित और आनंदित कर जाता है, वैसा फिर हम कभी नहीं कर पाते। कारण क्या है? कारण इतना ही है कि बच्चे की सभी इंद्रियां अभी ताजी हैं। और अभी वे जो भी ग्रहण करती हैं, वह समग्र रूप से प्रवेश कर जाता है। अमरीका में सेंसिटिविटी के लिए आंदोलन चलता है, और बहुत से केंद्र हैं। एक बड़ा केंद्र कैलिफोर्निया में है-बिगसोर में। संभवतः इस सदी का महत्वपूर्ण से महत्वपूर्ण प्रयोग बिगसोर में चल रहा है। वह प्रयोग है कि लोगों की इंद्रिय की क्षमता को वापस लाया जाए। इक्कीस दिन के प्रयोग पर लोग जाते हैं। इक्कीस दिन में उन्हें फिर से चीजों को देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना सिखाया जाता है; प्रशिक्षित करना होता है। आप जब खाना खाने बैठते हैं-सिर्फ उदाहरण के लिए कह रहा हूं तो आपको पता नहीं होगा, अगर आपकी आंख बंद कर दी जाए और आपकी नाक बंद कर दी जाए, और आपके मुंह में सेव का टुकड़ा डाला जाए और प्याज का टुकड़ा, तो आप फर्क नहीं बता सकेंगे कि प्याज में और सेव में कोई फर्क है। क्योंकि फर्क का बड़ा हिस्सा स्वाद से ही नहीं आता, आंख से भी आता है, गंध से भी आता है। तो अगर नाक और आंख बंद हैं, तो आप प्याज में और सेव में फर्क नहीं कर पाएंगे। फर्क बहुत है। अगर सिर्फ स्वाद में ही फर्क होता, तो आप कर भी लेते; लेकिन आप नहीं कर पाएंगे, क्योंकि बड़ा फर्क गंध और आंख से था। तो बिगसोर में वे खाने के लिए देते हैं, तो वे कहते हैं, पहले खाने को स्पर्श करो, उसके रंग को देखो, उसके रूप को देखो, उसे हाथ से छुओ, उसे गाल पर लगा कर छुओ, आंख बंद करके स्पर्श करो, उसकी गंध लो, आंख से देखो, फिर मुंह में उसे डालो, फिर उसका स्वाद लो। और यह सारा सचेतन रूप से करो। इक्कीस दिन के प्रयोग में आप भोजन में नए स्वाद, नई गंध और नए स्पर्श शुरू कर देते हैं। और उनके साथ ही आपके भोजन की पूरी प्रक्रिया बदल जाती हैं। क्योंकि तब उतने स्वाद, उतनी गंध और उतने रूप के द्वारा बहुत थोड़ा सा भोजन भी बहुत ज्यादा तृप्तिदायी हो जाता है। हम सब अधिक भोजन कर रहे हैं। उसका कारण यह है कि भोजन तो हम डालते चले जाते हैं, तृप्ति बिलकुल नहीं होती। और तृप्ति की तलाश है! तो हम सोचते हैं कि इतने भोजन से नहीं हुई, तो थोड़ा और डाल लें, उससे हो जाए। थोड़ा और डाल लें। लेकिन हमें पता नहीं, जितना हम ज्यादा डालते हैं, उतनी ही हमारी तृप्ति को अनुभव करने की जो संवेदना है, वह क्षीण होती चली जाती है। एक दिन हमारा मुंह कुछ अनुभव ही नहीं करता, वह सिर्फ डालने का स्थान रह जाता है, चीजों को हम डालते चले जाते हैं। और तब हमें उत्तेजक चीजें डालनी पड़ती हैं। एक आदमी कहता, बिना मिर्च के स्वाद ही नहीं आता। उसका कुल कारण इतना है कि मिर्च जैसा तीव्र स्वाद हो, तो ही थोड़ा-बहुत आता है। स्वाद इतना मर गया है। स्वाद इतना मर गया है कि जब तक जहर ही न डाला जाए, तब तक हमें पता ही नहीं चलता कि कुछ हो रहा है। आसाम में, बिहार के कुछ हिस्सों में, बंगाल में, जहां तंत्र की पुरानी साधनाओं के सूत्र अब भी प्रचलित हैं, 101'
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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