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________________ ताओ उपनिषद भाग २ कर थक गई होती है, यंत्र घिस गया होता है। बूढ़े के कान बूढ़े होने के कारण नहीं सुनते, ऐसा नहीं है। सुन चुके होते हैं, काम कर चुके होते हैं, थक गए होते हैं। विश्राम का क्षण आ गया होता है। यंत्र अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका। अगर इस तरह देखें, तो इसका अर्थ हुआ कि जितना हम देखते हैं, उतनी ही आंख मरती है। और जितना हम सुनते हैं, उतने ही कान बधिर हो जाते हैं। और जितना हम छूते हैं, उतना ही स्पर्श नष्ट होता है। जितना हम स्वाद लेते हैं, उतनी ही रुचि विनष्ट होती है। इसका अर्थ हुआ कि प्रत्येक इंद्रिय अपनी मृत्यु की कोशिश में लगी है। और हमारा पूरा जीवन आत्मघाती है, स्युसाइडल है। कभी सिनेमागृह से लौटते वक्त आपको लगा होगा कि आंख थक गई। आपने खयाल नहीं किया होगा कि आंख तो आप वैसे भी खोले रखते हैं, सिनेमागृह में भी खोले रखे; तीन घंटे बाहर होते, तो वहां भी खोले रखते, सिनेमागृह में भी खोले रखे; पर ज्यादा क्यों थक गई है? तो अब दुबारा जब आप जाएं, तो खयाल करना। सिनेमागृह में देखते समय आपकी आंख का पलक झपना बंद हो जाता है। वह जो आंख बीच-बीच में झपक लेती है, उससे ताजी हो जाती है। वह झपकना जो है, आंख के देखने के सिलसिले को तोड़ता जाता है। लेकिन जब भी आप कहीं इतनी त्वरा से देखने लगते हैं कि झपकना भूल जाते हैं आंख का, तो आंख थक जाती है। इसलिए सिनेमागृह से लौटा हुआ आदमी एकदम से सो भी नहीं पाता। आंख तीन घंटे अपलक खुली रहने के बाद एकदम से बंद भी नहीं हो पाती। और आंख बंद भी हो जाए, तो भी सिनेमागृह में जो उसने देखा है, वह भीतर के पटल पर चलता चला जाता है। अक्सर ऐसा होता है, अक्सर ऐसा होता है कि पेंटर, चित्रकार जल्दी अंधे हो जाते हैं। होना नहीं चाहिए। जिनकी आंखों ने इतना देखा है, उनकी आंखें तो और ताजी हो जानी चाहिए। लेकिन रंगों में जी-जी कर अक्सर, देख-देख कर अक्सर अंधे हो जाते हैं। जिस इंद्रिय का हम ज्यादा उपयोग करते हैं, वही थक जाती है और मर जाती है। एक तो यह अर्थ हुआ। इसका प्रयोजन यह है लाओत्से का कि हम अपनी इंद्रियों को मरते क्षण तक भी ताजा और युवा रख सकते हैं। और जिस व्यक्ति ने अपनी इंद्रियों को मरते क्षण तक ताजा और युवा रखा हो, वह मृत्यु का भी स्वाद ले सकता है। मृत्यु का भी रंग देख सकता है। वह मृत्यु का भी स्पर्श कर सकता है। वह मृत्यु को भी अनुभव कर सकता है। लेकिन मरने के पहले ही हमारे अनुभव की सब क्षमताएं टूट जाती हैं। इसलिए हम कई बार मर चुके हैं, लेकिन हमें मृत्यु का कोई अनुभव नहीं है। इसकी अड़चन है।। हम सब कई बार मर चुके हैं। लेकिन यदि हम किसी से पूछे कि मृत्यु क्या है, तो वह कहेगा मैं नहीं जानता हूं। वह भी मरा है, बहुत बार मरा है। पर उसे कुछ भी याद नहीं है। क्योंकि याद तो तभी हो सकती है, जब इंद्रियां इतनी सजग रही हों कि उन्होंने अनुभव लिया हो और अनुभव स्मृति में प्रवेश कर गया हो। मरते क्षण तक अधिक लोग, मरने की घटना बाद में घटती है, उनकी सब इंद्रियां पहले ही मर चुकी होती हैं। इसलिए मेमोरी, स्मृति निर्मित नहीं हो पाती। इसलिए मजे की बात है कि अक्सर जिन लोगों को पिछले जन्म का स्मरण होता है, सौ में निन्यानबे मौकों पर वे लोग पिछले जन्म में युवा या बच्चे ही मर गए होते हैं। उसका कारण है। निन्यानबे मौकों पर उनका पिछला जन्म अचानक, आकस्मिक रूप से, कम उम्र में, जब सब ताजा था, इंद्रियां ताजी थीं, स्मृति ताजी थी, बुद्धि ताजी थी, तब मौत घट गई। तो वह जो इम्पैक्ट है, वह जो संस्कार है मृत्यु का, वह भूलता नहीं, वह याद रह जाता है। अभी तक ऐसी घटना नहीं घटी है कि पिछले जन्म के स्मरण करने वाले ने किसी ने कहा हो कि पिछले जन्म में मैं नब्बे वर्ष का होकर मरा। ऐसा नहीं है कि ऐसा नहीं घट सकता, ऐसा घट सकता है। लेकिन ऐसा घटने का मौका नहीं आता, क्योंकि मरने के पहले ही उसके भीतर के सब यंत्र मर चुके होते हैं। 100
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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