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________________ 99 15 हां हम जीते हैं, जैसे हम जीते हैं, उस जीवन का अंतिम फल मृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं होता है। कहा जा सकता है कि हम सिर्फ जी के नाम पर रोज-रोज मरते हैं । और मृत्यु एक दिन अचानक नहीं आती। अचानक इस जगत में कुछ भी नहीं होता है । जिन्हें हम घटनाएं समझते हैं, वे भी घटनाएं नहीं होतीं। वे भी लंबी प्रक्रियाएं होती हैं। मृत्यु भी अचानक नहीं उतर आती । मृत्यु भी रोज-रोज विकसित होती है। इट इज नॉट एन ईवेंट, बट ए प्रोसेस; घटना नहीं, एक प्रक्रिया। जन्म से ही हम मरना शुरू हो जाते हैं। मृत्यु के दिन वह मरने की प्रक्रिया पूरी होती है। तो एक तो मृत्यु अचानक नहीं घटती, एक विकास है। इसलिए मृत्यु भविष्य में घटेगी, ऐसा नहीं; अभी भी घट रही है। हम घंटे भर यहां होंगे, तो मृत्यु घंटे भर घट चुकी होगी। हम घंटा भर और मर चुके होंगे। जीवन एक घंटा और रिक्त हो जाएगा। दूसरी बात कि मृत्यु कोई बाहरी घटना नहीं है कि आपके ऊपर बाहर से आ जाती हो। हम सब इसी तरह सोचते हैं, जैसे मौत कहीं बाहर से आ जाती है, यमदूत उसे ले आते हैं, कोई मृत्यु का संदेशवाहक आ जाता है और हमारे प्राणों को खींच कर ले जाता है। गलत है वह दृष्टि । वह दृष्टि भी इसीलिए है कि हम सदा ही दुख कोई दूसरा लाता है, इस दृष्टि से बंधे हैं, इसलिए मृत्यु भी कोई लाता होगा। नहीं, कोई मृत्यु लाता नहीं । मृत्यु भी आंतरिक घटना है; आपके भीतर ही घटित होती है । मृत्यु कहीं बाहर से आपके भीतर प्रवेश नहीं करती; आप ही भीतर मिट जाते हैं, बिखर जाते हैं। वह जो यंत्र था आपका, वह बिखर जाता है, और मौत घट जाती है। तो एक तो मृत्यु एक प्रक्रिया है लंबी, जन्म से शुरू होती, मृत्यु पर समाप्त होती । दूसरा, बाहर से नहीं आती, भीतर ही विकसित होती है; अंतर घटना है। यह बात खयाल में आ जाए, तो हमें पता चलेगा कि हमारा पूरा जीवन रोज-रोज अनेक रूपों में मरता है। आंख देख-देख कर मिटती है और नष्ट होती है। कान सुन-सुन कर मिटते हैं। और नष्ट होते हैं। स्वाद, स्वाद ले ले कर टूटता चला जाता है, बिखर जाता है। मरते हैं हम जी-जी कर । जीना ही हमारे मरने का इंतजाम है। उसी में हम घिस जाते हैं। यंत्र बिखर जाता है, टूट जाता है, उखड़ जाता है। लाओत्से कहता है, 'पंच रंग मनुष्य की आंखों को अंधा कर जाते हैं।' कभी इस तरह सोचा न होगा आपने कि रंग और आंख को अंधा कर जाएं! रंग तो आंख का हमें जीवन मालूम होते हैं। रंग देखने के लिए ही तो आंख जीती है और चमकती है। रंग और रूप तो हमारी आंख का भोजन हैं। और लाओत्से कहता है, वे हमारी आंख की मृत्यु हैं। दो अर्थों में हैं। एक तो, देख-देख कर ही आंख थकती, नष्ट होती, उपयोग की नहीं रह जाती है। बुढ़ापे के कारण बूढ़े की आंख कम देखती है, ऐसा नहीं है। बहुत देख चुकी होती है, इसलिए अब कम देखती है। देख-देख •
SR No.002372
Book TitleTao Upnishad Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1995
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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