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ताओ उपनिषद भाग २
तो लाओत्से कहता है कि सदा खोज लेना गहराई को, सतह से मत उलझ जाना। और सदा खोज लेना उस विपरीत को, जो कि सबका मूल आधार है। सदा उसकी फिक्र कर लेना। क्योंकि उसी से जीवन का रस और उसी से जीवन का सौंदर्य और उसी से जीवन की शक्ति और ऊर्जा उपलब्ध होती है। कहीं भी, निरंतर दूसरा भी गहरे में मौजूद है। उस गहरे का खयाल रखना, तो जीवन की पूरी की पूरी दृष्टि दूसरी हो जाती है। जिसको प्रेम में भी घृणा दिखाई पड़ने लगे, वह दोनों से मुक्त हो जाता है। और तब एक अनूठे ही प्रेम का जन्म होता है। वह प्रेम हमारे लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान है। वह प्रेम एक संबंध नहीं, वह प्रेम एक स्वभाव है।
उसी प्रेम को क्राइस्ट कहे कि वह प्रेम ईश्वर है। उसी प्रेम को महावीर ने अहिंसा कहा, बुद्ध ने करुणा कहा। लाओत्से ने उसे नाम ही नहीं दिया, क्योंकि लाओत्से ने कहा कि सभी नाम दूषित हो गए हैं। प्रेम कहो, तो लोग समझेंगे उनका प्रेम, करुणा कहो, तो लोग समझेंगे उनकी करुणा; कुछ भी कहो, लोगों के सभी शब्द दूषित हो गए हैं, विकृत हो गए हैं। सभी शब्द बीमार हो गए हैं। क्योंकि बीमार आदमियों ने इतना उनका उपयोग किया है, संक्रामक हो गए हैं। सभी शब्दों में आदमियों की बीमारियां प्रवेश कर गई हैं। एक भी शब्द अनकंटेमिनेटेड नहीं है। ऐसा शब्द खोजना मुश्किल है, जिसको हम कह सकें कि इसमें आदमियों की बीमारियों के रोगाणु नहीं पड़ गए हैं। सभी शब्द रुग्ण हो गए हैं। कोई शब्द शुद्ध नहीं है। इसलिए लाओत्से ने कहा कि मैं कोई शब्द नहीं देता। मैं तुमसे इतना ही कहता हूं कि जहां दोनों नहीं रह जाते, वहां जो रह जाता है, वही, वही पाने योग्य है।
अगर शब्द और शून्य का खयाल आ जाए, तो शब्द के पीछे शून्य छिपा है-एक बात आपको अंत में इशारा कर दूं-शब्द और शून्य का अगर खयाल आ जाए, तो शब्द के पीछे शून्य छिपा है लेकिन जो शून्य शब्द के पीछे छिपा है, वह भी शब्द से जुड़ा हुआ है। एक और शून्य है, महाशून्य है, जहां शब्द भी नहीं और शून्य भी नहीं। लेकिन उसके लिए कोई शब्द देना मुश्किल है। अस्तित्व द्वंद्व है, दो में बंटा है, विपरीत में बंटा है और विपरीत के सहारे काम करता है। लेकिन अस्तित्व की गहराई निर्द्वद्व है, अद्वैत है, वहां दोनों खो जाते हैं। तब यह कहना मुश्किल है कि वहां एक रह जाता है। क्योंकि हमारी भाषा जैसा मैंने कहा, जब भी हम कहें एक, तब हमें तत्काल दो का खयाल आता है। सोचना कभी बैठ कर घंटे भर कि एक का खयाल करना और दो का खयाल न आए, तो आप समझ पाएंगे कि जो मैं कह रहा हूं वह एक। लेकिन हम जब भी एक कहेंगे, तत्काल दो का खयाल आ जाएगा। हमारा एक दो की श्रृंखला का हिस्सा है, पार्ट, उसका अंश है। हमारे एक का कोई मतलब ही नहीं होता।
इसलिए हिंदुओं ने परमात्मा को एक नहीं कहा, अद्वैत कहा। निषेध का उपयोग किया। यह नहीं कहा कि वह एक है, कहा कि वह दो नहीं है। अद्वैत का मतलब होता है, दो नहीं है। सीधी सी बात कह सकते थे कि एक है। लेकिन एक कहने में तत्काल दो का खयाल आता है; इसलिए उन्होंने बड़ी होशियारी की बात कही, बड़ी बुद्धिमानी की, कि वह दो नहीं है। जब कहा कि दो नहीं है, तो इशारा तो किया कि एक है, लेकिन एक का उपयोग नहीं किया। सिर्फ खयाल आ जाए, भनक पड़ जाए कि वह एक है-बिना शब्द का उपयोग किए।
तो द्वंद्व को जो जान लेगा, पहचान लेगा, समझ लेगा, वह द्वंद्व के पार हो जाता है। अस्तित्व द्वंद्व है, जहां हम खड़े हैं वहां। लेकिन हमें तो द्वंद्व का भी एक ही हिस्सा दिखाई पड़ता है।
तो तीन बातें हैं। एक, हमें द्वंद्व का एक ही हिस्सा दिखाई पड़ता है, दूसरा हिस्सा भी दिखाई नहीं पड़ता। तो पहला काम तो यह है कि हमें पूरा द्वंद्व दिखाई पड़े। जब हमें पूरा द्वंद्व दिखाई पड़ेगा, तब हमें तीसरी चीज दिखाई पड़ेगी, जो द्वंद्व के पार है। हम जहां खड़े हैं, वहां हमें प्रेम दिखाई पड़ता है, घृणा दिखाई नहीं पड़ती। अगर घृणा दिखाई पड़ती है, तो प्रेम दिखाई नहीं पड़ता। अगर ये दोनों हमें दिखाई पड़ने लगें, तो हमें तीसरा दिखाई पड़ेगा, जो दोनों नहीं है, दोनों के पार है।
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