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लाओत्से कहता है, शांत हो जाएं, तो आपके चारों तरफ शांति फैलने लगेगी।
फिर भी जरूरी नहीं है। क्योंकि लाओत्से के पास भी कोई अशांत रह सकता है। और बुद्ध के पास बैठ कर भी कोई हत्या का विचार कर सकता है। बुद्ध का खुद सौतेला भाई बुद्ध के पास वर्षों रह कर भी बुद्ध की हत्या के आयोजन ही करता रहा। तो उसने बुद्ध को मारने के हजारों उपाय किए हैं। बुद्ध नीचे ध्यान कर रहे हैं शिलाखंड पर बैठ कर, वह ऊपर से पत्थर सरका देता है। बड़ी मुश्किल की बात है! बुद्ध ध्यान में बैठे हों, तो उनके पास तो जो रेडिएशन होना चाहिए, वह अपूर्व शांति का होना चाहिए। और अगर बुद्ध के पास नहीं होगा, तो किसके पास होगा? पर वह देवदत्त है, वह पत्थर सरका रहा है नीचे बुद्ध पर। वे रास्ते से गुजर रहे हैं, निरीह बुद्ध, जो कि एक फूल को भी चोट न पहुंचाना चाहें, और देवदत्त एक पागल हाथी को छुड़वा देता है। और वह सौतेला भाई है, कजिन है। तब तो सवाल उठता है कि बात क्या है? अगर बुद्ध के पास शांति की और आनंद की किरणें फैलती हैं, तो इसको क्या हो रहा है?
लेकिन वे भी तभी फैल सकती हैं, जब आप ग्राहक हों, नहीं तो आपके भीतर नहीं फैलेंगी। आप अपने द्वार बंद रख सकते हैं। इतनी स्वतंत्रता है आपको। आप अपने भीतर के जहर में जी सकते हैं। और अमृत की भी वर्षा हो रही हो, तो छाता लगा सकते हैं।
तो जब यह कहा जा रहा है तो इस बात को ध्यान में रख लेना आप, कि लाओत्से का जो ज्ञानी है, वह अपनी तरफ से तो शांत हो जाएगा, अपनी तरफ से शांति की किरणें फेंकेगा; फिर जो भी उस शांति की किरणों के लिए ग्राहक हैं, उनमें व्यवस्था हो जाएगी; जो नहीं हैं ग्राहक, उनमें व्यवस्था नहीं होगी। लेकिन फिर भी लाओत्से उनकी अशांति में भागीदार तो नहीं ही रह जाएगा। वह अशांति की किरणें फेंकता, तो उनकी अशांति को बढ़ाने में तो भागीदार होता ही! अब कम से कम अशांति उनकी नहीं बढ़ाएगा। अगर शांति न भी उनको मिल सकी, तो भी अशांति बढ़ाने में हाथ नहीं बंटाएगा। और इतना भी कम नहीं है, इतना भी बहुत है! और इसके इकट्ठे परिणामों का जोड़ तो बहुत ज्यादा हो जाता है। उसका हिसाब लगाना मुश्किल है।
अभी हम अणु का विस्फोट कर लिए हैं। तो हमें पता चला है कि परमाणु में, पदार्थ के आखिरी कण में अपरिसीम शक्ति है। इसकी हमें कभी कल्पना भी नहीं थी। यह कभी किसी ने सोचा भी नहीं था। यह इमेजिनेशन में भी कभी नहीं था कि परमाणु में इतनी शक्ति होगी। क्योंकि सदा हम सोचते हैं कि शक्ति बड़े में होनी चाहिए, छोटे में क्या शक्ति होगी? शक्ति को हम बड़े से सोचते हैं। छोटे में क्या शक्ति होगी? लेकिन राज उलटा है। जितना सूक्ष्मतम हो, उतना ही ज्यादा शक्तिशाली होता है। शक्ति सूक्ष्म में है, बड़े में नहीं। सूक्ष्मतम में अधिकतम शक्ति है। और जो शून्यतम है, वह शक्ति का अपरिसीम पारावार है। वहां तो कोई हिसाब ही नहीं है। सूक्ष्म में शक्ति बढ़ती चली जाती है। शून्य पूर्ण शक्ति का हो जाता है।
अगर ज्ञानी पूर्ण शून्य हो जाए, निष्क्रिय; न कुछ करता, न कुछ बोलता; नहीं, उसमें कोई हलन-चलन ही नहीं है, कोई कंपन ही नहीं है; निष्कंप हो जाए, शून्य हो जाए, तो परम शक्ति का आगार हो जाता है। वह परम शक्ति अनेक-अनेक रूपों में आयोजन करने लगती है, अनेक व्यवस्थाएं देने लगती है। अनेक जीवन उसके निकट बदल जाते हैं। दूर-दूर तक, कभी-कभी लाखों वर्षों तक उसके परिणाम होते हैं।
अब मैंने आपसे कहा कि देवदत्त है सौतेला भाई। बुद्ध के पास वर्षों रह कर भी हत्या के विचार बुद्ध की ही कर रहा है। लेकिन ऐसे लोग भी हैं, जो पच्चीस सौ साल बाद बुद्ध के नाम से ही पुलकित हो जाते हैं और उनके भीतर कोई द्वार खुल जाता है। और पच्चीस सौ साल की सीमा पार करके बुद्ध की किरणें उनमें आज भी प्रवेश कर जाती हैं। क्योंकि इस जगत में कोई भी रेडिएशन कभी खोता नहीं है। इस जगत में जो भी किरण है, वह कभी खोती नहीं है। इस जगत में जो भी है, वह नहीं खोता है। बुद्ध के हृदय से जो किरणों का विकीर्णन हुआ था, वे आज भी, आज भी उसी तरह फैलती रहती हैं। आज भी कोई हृदय उनके लिए खुलता है, तो तत्काल उसमें प्रवेश कर जाती हैं।
बुद्ध का ही क्यों, जो भी जानने वाले कभी हुए हैं, उनका भी! और जो नहीं जानने वाले हुए हैं, उनका भी! जब आप हत्या का विचार करते हैं, तो आप अकेले नहीं होते; जगत के सारे हत्यारों की किरणें आपको उपलब्ध हो जाती हैं। ध्यान रहे, न तो इस जगत में किसी आदमी ने अकेले हत्या की है और न इस जगत में अकेले किसी आदमी ने परम ज्ञान पाया है। जब कोई परम ज्ञान पाने को आतुर होता है, तो जगत के सब परम ज्ञानियों की शक्ति उसमें बहने लगती है। और जब कोई किसी की हत्या करने को आतुर होता है, तो जगत के सारे हत्यारे-जो कभी हुए, जो अभी हैं, या जो कभी होंगे-उन सब का प्रवाह उस आदमी की तरफ हो जाता है, वह गड्ढा बन जाता है। इसलिए हत्यारे अक्सर कहते हैं, और ज्ञानी भी। हत्यारे अक्सर कहते हैं कि यह मैं कैसे कर पाया? यह मैं नहीं कर सकता, यह मैं सोच ही नहीं सकता कि हत्या मैंने की होगी। यह मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि मैं ऐसा काम कर पाऊंगा।
इसमें थोड़ा सा सत्य है। क्योंकि हत्या करने का विचार तो हत्यारे ने ही किया, लेकिन हत्या करते वक्त उसको जो किरणें उपलब्ध होती हैं, जो शक्ति उपलब्ध होती है, उसमें बहुत हत्यारों का हाथ है।
इसलिए कोई ज्ञानी भी यह नहीं कहता कि यह ज्ञान मुझे मिला। यद्यपि चेष्टा उसने की, साधना उसने की, संकल्प उसने किया, समर्पण उसने किया। लेकिन जब ज्ञान उपलब्ध होता है, तो जगत के समस्त ज्ञानियों की शक्ति उसके साथ खड़ी हो जाती है। इस जगत में हम व्यक्ति की तरह नहीं जीते हैं। हम एक बड़े, अनंत व्यक्तियों के जाल में एक बिंदु की तरह जीते हैं।
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