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तो पैरों की आवाज नहीं होती और शून्य चले तो पदचिह्न नहीं बनते और न पगध्वनि होती है। जैसे पक्षी आकाश में उड़ते हैं और पैरों के कोई चिह्न नहीं बनते, ऐसे ही।
यह जो लाओत्से कहता है कि ज्ञानी बिना कुछ किए व्यवस्था करते हैं, भाषा में कठिनाई है कहने में, इसलिए उसे कहना पड़ता है, व्यवस्था करते हैं। व्यवस्था भी करते नहीं, व्यवस्था होती है। तो बजाय ऐसा कहने के कि दि सेज मैनेजेज अफेयर्स विदाउट एक्शन, उचित यही है कहने का, अफेयर्स आर मैनेज्ड विदाउट एक्शन। ज्ञानी व्यवस्था करता है, ऐसा नहीं; ज्ञानी से बिना क्रिया के, बिना कर्म के कार्य व्यवस्थित होते हैं। ऐसा जान कर, चेतन रूप से उसे कुछ करना नहीं पड़ता है। वह कुछ करता ही नहीं, क्योंकि करने का जो वहम है, वह अहंकार के साथ ही गिर जाता है। जब तक मैं हूं, तब तक कर्ता होता है, तब तक लगता है, मैं करता हूं। और बड़े मजे की बात है, ऐसी चीजों को भी मैं कहता हूं, मैं करता हूं, जिनको मैं बिलकुल नहीं करता हूं। जब तक मेरा मैं है, तब तक मैं सब चीजों को इस ढंग से विवेचना करता हूं कि लगे कि मैं उनका कर्ता हूं। श्वास लेता हूं तो मैं लेता हूं, जीता हूं तो मैं जीता हूं, बीमार होता हूं तो मैं होता हूं, स्वस्थ होता हूं तो मैं होता हूं, जैसे कि मैं कर रहा हूं। जवान होता हूं तो मैं होता हूं, बूढ़ा होता हूं तो मैं होता हूं, जैसे मैं कुछ कर रहा हूं। अहंकार हर एक क्रिया को अपने से जोड़ लेता है।
ज्ञानी का तो अहंकार खो गया, इसलिए हर क्रिया परमात्मा से जुड़ जाती है, ज्ञानी से हट जाती है। इसलिए ज्ञानी कुछ भी नहीं करता। और जिस दिन ज्ञानी इस स्थिति में आ जाता है कि कछ भी नहीं करता, उस दिन ज्ञानी सिर्फ माध्यम हो जाता है परमात्मा का। वह परमात्मा का एक साधन हो जाता है। परमात्मा ही उसे उठाता, परमात्मा ही उसे बिठाता, परमात्मा ही उसे चलाता, परमात्मा ही उससे बोलता, या परमात्मा ही उससे चुप होता है।
इसलिए उपनिषद के ऋषियों ने अपने नाम अपने वचनों के साथ नहीं लिखे। नहीं लिखे इसलिए कि वे परमात्मा के वचन हैं। इसलिए वेद को हम किसी भी व्यक्ति से नहीं जोड़ पाए, वरन हमने जाना कि वेद अपौरुषेय हैं, किसी पुरुष के द्वारा निर्मित नहीं हैं। इससे बड़ी नासमझी की बात भी पैदा हुई। लोग कहने लगे कि वेद को स्वयं ईश्वर ने लिखा है। सचाई दूसरी है। सचाई इतनी है कि जिन्होंने वेद को लिखा, उनकी ऐसी समझ नहीं थी कि हम लिख रहे हैं। लिखा तो आदमी ने ही है। लेकिन जिस आदमी ने लिखा है, उसकी अस्मिता बिलकुल खो गई थी। उसे बिलकुल कारण न था कहने का कि मैं लिख रहा हूं। उससे कोई पूछता, तो वह यही कहता कि परमात्मा लिखवा रहा है, या परमात्मा लिख रहा है। लिखे तो मनुष्यों ने ही हैं। लेकिन जिन्होंने लिखे थे, उनका कोई अहंकार नहीं था। इसलिए वे कह सके कि हमारे नहीं हैं, परमात्मा ही लिखवा रहा है, अपौरुषेय हैं।
इस जगत में जो भी श्रेष्ठतम सत्यों का किसी भी, किसी भी ढंग से प्राकटय हुआ है, वह सभी अपौरुषेय है। उसमें करने वाले को, मैं कर रहा हूं, इसका कोई भी पता नहीं रहा है। और जहां इसका पता रहा है, वहीं सत्य विकृत हुआ है, वहीं सौंदर्य कुरूप हो गया है, वहीं प्रेम घृणा बन गया है।
लाओत्से कहता है, न तो वे कर्म से व्यवस्था करते हैं और न शब्द से संदेश देते हैं। फिर भी कर्म करते हैं। लाओत्से चलता है, उठता है, सोता है, बैठता है। खाना खाता है। भूख लगती है, नींद आती है। भिक्षा मांगता है। एक गांव से दूसरे गांव जाता है। कोई समझने आता है, उसे समझाता है। कर्म तो वह करता है। लेकिन इन कर्मों से लाओत्से ऐसी भांति में नहीं पड़ता कि मैं दुनिया की कोई व्यवस्था कर रहा हूं। इसे और समझ लें।
लाओत्से इन कर्मों को ऐसे ही करता है, जैसे लाओत्से से कोई पूछता है कि तुम उठते हो, बैठते हो, सोते हो, जागते हो, चलते हो, समझाते हो, कर्म तो करते ही हो! तो लाओत्से कहता है, मेरे कर्म ऐसे ही हैं, जैसे सूखा पत्ता हवा में उड़ता हो। हवा पूरब की तरफ ले जाती है, तो सूखा पत्ता पूरब की तरफ चला जाता है; हवा पश्चिम की तरफ ले जाती है, तो सूखा पत्ता पश्चिम की तरफ चला जाता है। कभी-कभी हवा आकाश में उठा देती है बवंडर पर चढ़ा कर, तो सूखा पत्ता आकाश में उड़ जाता है। और कभी-कभी हवाएं शांत हो जाती हैं और पत्ते को बिलकुल भूल जाती हैं, और पत्ता जमीन पर पड़ जाता है। मैं एक सूखे पत्ते की तरह हवाओं में डोलता रहता हूं। हवाओं की जो मर्जी! जब वे मुझे आकाश में उठा देती हैं, तब मैं अकड़ नहीं जाता कि देखो, मैं सिंहासन पर बैठा हूं। और जब वे मुझे जमीन पर गिरा देती हैं, तो मैं जार-जार रोने नहीं लगता कि देखो, मैं अपमानित हुआ, मेरी उपेक्षा हुई। जब वे मुझे आकाश में उठा देती हैं हवाएं, तब मैं उनके ऊपर तैरने का आनंद लेता हूं। और जब वे मुझे नीचे गिरा जाती हैं, तब मैं विश्राम में चला जाता हूं, विश्राम का आनंद लेता हूं। जब पश्चिम की तरफ ले चलती हैं, तब पश्चिम की यात्रा! और जब पूरब की तरफ ले चलती हैं, तो पूरब की यात्रा! मेरी अपनी कोई यात्रा नहीं। मुझे कहीं जाना नहीं। हवाओं को भी नाराज करने का कोई कारण नहीं पाता हूं। अपनी कोई मर्जी होती, तो हवाओं से भी कहता कि पूरब मत ले जाओ, कि पश्चिम मत ले जाओ, कि ऊपर मत उठाओ, कि नीचे मत गिराओ। अपनी कोई मर्जी नहीं है।
लाओत्से कहता है, जो भी हो रहा है, वह मैं नहीं कर रहा हूं; वह हो रहा है। इसलिए जो भी फल आए, कोई प्रयोजन नहीं है। कोई लाओत्से से समझता है, समझ ले; ठीक। न समझे, ठीक। लाओत्से किसी को कनविंस करने नहीं निकला हुआ है।
इसको फर्क समझें। एक मुसलमान मित्र दो-चार दिन पहले मुझे मिलने आए थे। वे पूछने लगे कि हिंदू धर्म की संख्या इतनी कम क्यों है, अगर इतना ऊंचा धर्म है तो? इसलाम की इतनी संख्या है, ईसाइयत की इतनी संख्या है, बौद्ध धर्म की इतनी संख्या है। और हिंदू धर्म सबसे पुराना है, आप कहते हैं, तो उसकी संख्या सबसे ज्यादा होनी चाहिए। तो मैंने उनसे कहा कि उसका कारण है। जिन
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