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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free “दि सेज कनवेज हिज डॉक्ट्रिन विदाउट वर्ड्।' और वह ज्ञानी जो है, बिना शब्द के अपना सिद्धांत समझाता है। बिना कर्म के अपने व्यक्तित्व को प्रकट करता है, बिना शब्द के अपनी दृष्टि को, अपने दर्शन को। सोचना पड़ेगा। क्योंकि ऐसा एक भी ज्ञानी नहीं हुआ, जिसने शब्द का उपयोग न किया हो। और लाओत्से कहता है, ज्ञानी कभी भी शब्द से अपने दर्शन को अभिव्यक्त नहीं करता। तो इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक मतलब तो यह कि जो भी बोले हैं, वे कोई भी ज्ञानी नहीं थे। और जो ज्ञानी थे, उनका हमें कोई पता नहीं। फिर लाओत्से, बुद्ध और जीसस और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट, वे भी ज्ञानियों की पंक्ति में सम्मिलित न हो सकेंगे। दूसरा अर्थ यह हो सकता हैऔर वही अर्थ है-कि बुद्ध ने जो भी बोला है, उस बोलने में उनका दर्शन नहीं है; जो भी बोला है, उसमें उनकी सार बात नहीं है। बोलने से तो केवल उन्होंने लोगों को बुलाया है निकट। जो निकट आ गए हैं, उनसे बिना बोले कहा है। बोलना तो एक डिवाइस थी, एक उपाय था, सत्य को बताने का नहीं, वे जो बोलने के सिवाय कुछ भी नहीं समझ सकते हैं, उन्हें पास बुलाने का। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। बोलने से तो सत्य को बोला नहीं जा सकता। बोलते ही सत्य असत्य को जन्म देता है। और बोलते ही सिद्धांत विवाद बन जाता है। इसलिए सब सिद्धांत वाद बन जाते हैं, बोलते ही। वाद बनते ही विपरीत वाद निर्मित होता है। संघर्ष और कलह और संप्रदाय और मत, सारा उपद्रव का जन्म होता है। क्या सत्य के बोलने से ऐसा होगा कि सत्य बोला जाए तो विवाद पैदा हो? सत्य के बोलने से तो विवाद पैदा नहीं होगा। लेकिन सत्य बोला ही नहीं जाता, और न कभी बोला गया है। जो भी बोला गया है, वह केवल, जो शब्द को ही समझ सकते हैं, उनको बुलाने का उपाय है। एक बार वे पास आ जाएं, एक बार वे निकट मौजद हो जाएं, तो उनसे मौन में भी बात की जा सकती है। यह सिर्फ प्रलोभन है, बोलना सिर्फ प्रलोभन है। जैसे हम छोटे बच्चों को शक्कर की गोलियां दे देते हैं स्कूल बुलाने के लिए, खेलखिलौने रख देते हैं स्कूल बुलाने के लिए। फिर धीरे-धीरे खेल-खिलौने कम होते जाते हैं। नर्सरी में तो हमें खेल-खिलौने ही रखने पड़ते हैं; पढ़ाई-लिखाई का कोई सवाल नहीं। कहते उसे स्कूल हैं, बाकी पढ़ाई-लिखाई का कोई वास्ता नहीं है। फिर धीरे-धीरे खिलौने विदा होने लगेंगे। फिर भी बच्चों की किताबों में हमें बड़ी रंगीन तस्वीरें रखनी पड़ती हैं। जब बच्चे पहली दफे किताब लेते हैं, तो किताब के लिए रंगीन तस्वीर नहीं देखते, रंगीन तस्वीर के लिए किताब पढ़ते हैं। फिर रंगीन तस्वीरें समाप्त होने लगती हैं। फिर धीरे-धीरे तस्वीरें विदा हो जाती हैं। ठीक ऐसे ही बुद्ध या लाओत्से जब बोलते हैं, तो बोलते हैं उनके लिए, जो सिर्फ बोलने को ही समझ सकेंगे। लोग जब पास आ जाते हैं, निकट आ जाते हैं, पास बैठने की क्षमता पा जाते हैं, सत्संग का रस और स्वाद मिलने लगता है, तब बुद्ध और लाओत्से जैसे लोग मौन होने लगते हैं। और जो वाणी के लोभ में आया था, वह किसी दिन मौन का संदेश पाकर लौटता है। ज्ञानियों ने कभी भी कुछ कहा नहीं है। बहुत कुछ कहा है, यह जानते हुए कहता हूं। ज्ञानी सुबह से सांझ तक समझाते रहे हैं लोगों को, फिर भी सत्य उन्होंने नहीं कहा है। सत्य तो उन्होंने तब दिया है, जब सुनने वाला मौन में लेने को राजी हो गया। जब उसकी ग्राहकता आ गई, जब वह रिसेप्टिव हुआ, और जब उसकी तैयारी हो गई, तब उन्होंने उसे मौन में कुछ कहा है। कहने की घटना सदा मौन में घटी है। लेकिन हम जो संग्रह करते हैं, वह तो बोला हुआ है। हम जो संग्रह करते हैं, वह बोला हुआ है। इसलिए शास्त्र में वह छूट जाता है, जो सत्य है। क्योंकि सत्य कभी शब्द में कहा नहीं गया था। जो कहा गया था, वह केवल प्रलोभन था। वह ऐसा ही है कि हम कभी भविष्य के लिए किसी स्कूल को बचाना चाहें, उसकी स्मृति को बचाना चाहें, स्कूल में रखे हुए खेल-खिलौने इकट्ठे कर लें। और बाद में, हजारों वर्ष बाद, हम कहें कि यही था स्कूल में जो पढ़ाया जाता था। ये खेल-खिलौने नहीं पढ़ाए जाते थे। यह तो सिर्फ प्रलोभन था। जो पढ़ाया जाता था, वह यह खेल-खिलौनों में नहीं है। यह तो सिर्फ बच्चों को बुलाने के लिए निमंत्रण था। बुद्ध ने जो कहा है, कृष्ण ने जो कहा है, लाओत्से ने जो कहा है, महावीर ने जो कहा है, उस कहे हुए को हम संगृहीत कर लेते हैं। लेकिन जो नहीं कहा है, उसको तो संग्रह करने का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं कहा है, या नहीं कह कर ही जो कहा है, चुप रह कर जो बताया है, मौजूद होकर, किसी के पास होकर जो बताया है, सन्निधि में जो, उपस्थिति में जिसकी प्रतीति हुई है, जो एक से दूसरे में प्रवेश कर गया है एक जीवंत धारा की तरह, उसका तो संग्रह नहीं हो पाता। इसलिए हजारों वर्षों तक ऋषियों ने कोशिश की कि ग्रंथ लिखे न जाएं। हजारों वर्षों तक इस बात की आग्रहपूर्ण चेष्टा रही कि कुछ भी लिखा न जाए। क्योंकि लिखे हुए में वह तो छूट जाएगा जिसे कहने के लिए यह सब कहा था, यद्यपि इसमें वह कहा नहीं जा सका है। वे खाली, रिक्त स्थान तो छूट ही जाएंगे। और वही थे असली। इसलिए सैकड़ों वर्षों तक, बल्कि हजारों वर्षों तक...| वेद लिखे गए कोई पांच हजार वर्ष पहले। लेकिन लिखे जाने के पहले कम से कम नब्बे हजार वर्ष तक वे अस्तित्व में थे-कम से कम! लिखे इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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