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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free तो गए हैं पांच ही हजार वर्ष पहले, लेकिन कम से कम नब्बे हजार-कम से कम कह रहा हूं, इससे ज्यादा की संभावना है, यह न्यूनतम बता रहा हं आपको-कम से कम नब्बे हजार वर्ष तक वे अस्तित्व में थे। और जो वेद जैसे विचार को जन्म दे सकते थे, वे लिखने की कला न खोज पाते हों, यह नासमझी की बात है। जो वेद जैसे विचार को जन्म दे सकते हों, वे भाषा न बना पाते हों, लिपि न बना पाते हों, यह पागलपन की बात है। नब्बे हजार वर्ष तक वेद क्यों नहीं लिखे गए? आग्रह था कि न लिखे जाएं, न लिखे जाएं। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को सीधा ही संक्रमित करता रहे, डायरेक्ट ट्रांसफर हो। क्योंकि वह व्यक्ति शब्द भी दे सकेगा और वह शून्य मौजूदगी भी दे सकेगा! किताब फिर शून्य मौजूदगी नहीं दे सकेगी। किताब तो जड़ हो जाएगी। और किताब उनके भी हाथ लग जाएगी, जो कुछ भी नहीं जानते हैं। किताब को बचाना मुश्किल है। किताब अज्ञानी के हाथ में भी लग सकती है। और किताब अज्ञानी के हाथ में लग जाए तो अज्ञानी को इतनी जल्दी ज्ञानी होने का भ्रम पैदा होता है जिसका कोई हिसाब नहीं। अज्ञानी होना बुरा नहीं है, अज्ञान में ज्ञानी का भ्रम पैदा हो जाना बहुत खतरनाक है। क्योंकि फिर ज्ञान के द्वार ही बंद हो गए। हजारों-हजारों साल तक, सदियों तक आग्रह किया गया कि कुछ लिखा न जाए। जो जानता हो, वह उसे दे दे जो जानने के योग्य हो गया हो। जब तक जानने के योग्य न हो, तब तक शब्द का उपयोग करे; और जब जानने के योग्य हो जाए, तो निःशब्द संभाषण करे, मौन में कह दे। और जब तक कोई मौन को समझने के योग्य न हो जाए, तब तक जाहिर उसके सामने रखा जाए कि अभी उसे कुछ भी नहीं कहा गया है। अभी सिर्फ बाहरी बातें की गई हैं। अभी असली बात नहीं कही गई। तब तक उसे रोका जाए, ताकि उसे ज्ञानी होने का भ्रम न पैदा हो जाए। जिस दिन से किताबें लिखी गईं, उस दिन से ज्ञानी कम और ज्ञान ज्यादा मालूम होने लगा। फिर जिस दिन से किताबें छापी गईं, उस दिन से तो बात ही सब समाप्त हो गई। क्योंकि लिखी हुई किताब भी बहुत सीमित लोगों तक पहुंच सकती थी; छपी हुई किताब का तो कोई पहुंचने की बाधा न रही। और जो भी महत्वपूर्ण था, वह क्रमशः-क्योंकि वह तो व्यक्ति के द्वारा सीधा ही संक्रमण हो सकता था-वह खोता चला गया। लाओत्से जिन दिनों की बात कर रहा है, वह उन दिनों की बात है, जब ज्ञानी अपने दर्शन को निःशब्द में समझाते थे। इसे और दोतीन तरह से भी देख लेना जरूरी है। जितने पीछे हम लौट जाएंगे, उतना ही साधना पांडित्य नहीं है। जितने पीछे हम लौटेंगे, साधना पांडित्य नहीं है। साधना मौन होने का अभ्यास है। और पांडित्य तो शब्द से भरने का अभ्यास है। बुद्ध ने घर छोड़ा। तो वे गए; जो भी जानता था, उसके पास गए। और उससे कहा कि मैं परम सत्य की खोज में आया हूं, तुम्हें परम सत्य हो पता तो मुझे कहो। तो अदभुत लोग थे! जिन्हें नहीं पता था, उन्होंने कहा, परम सत्य का हमें पता नहीं; हम तो शास्त्र सत्य को जानते हैं। तो वह हम तुमसे कह सकते हैं। तो बुद्ध ने कहा, शास्त्र सत्य मुझे नहीं जानना, मुझे तो सत्य ही जानना है। तो उन्होंने कहा, तुम और किसी के पास जाओ। फिर बुद्ध उनके पास गए, जिन्होंने उन्हें साधना कराई। एक व्यक्ति के पास बुद्ध तीन वर्ष तक साधना करते थे। जो-जो उसने कहा, वह उन्होंने पूरा किया। जब सब पूरा कर डाला, तब बुद्ध ने कहा कि अब कुछ और भी करने को बचा है? या मेरे करने में कोई भूलचूक रही है? उस गुरु ने कहा, नहीं, तुम्हारे करने में कोई भूल-चूक नहीं रही; तुमने पूरी निष्ठा से पूरा कर दिया है। तो बुद्ध ने कहा, लेकिन मुझे परम सत्य का अभी तक कोई पता नहीं चला। तो उस व्यक्ति ने कहा, जितना मैं जानता था, उतना मैंने तुम्हें करवा दिया। परम सत्य का मुझे भी कोई पता नहीं है। अब तुम कहीं और जाओ; तुम किसी और को खोजो। बुद्ध छह वर्ष तक ऐसे चक्कर काटते फिरे। जिसके पास जो सीखने मिला, उन्होंने सीखा। जब तक नहीं सीखा, तब तक सवाल भी नहीं पूछा। यह बड़े मजे की बात है। तीन साल एक आदमी के पास समाप्त किए हैं। जब उस आदमी ने कहा, अब मुझे सिखाने को कुछ भी नहीं है; तब बुद्ध ने कहा, लेकिन परम सत्य मुझे अभी नहीं मिला। तीन साल पहले पूछना था यह बात कि परम सत्य तुम्हारे पास है? तीन साल खराब करके यह पूछने की क्या जरूरत है? असली सवाल यह नहीं है कि परम सत्य किसी के पास है। असली सवाल यह है कि तुम पहले अपने को योग्य बनाते हो या नहीं। इसलिए तीन साल बाद पूछा। क्योंकि यह योग्यता भी तो आनी चाहिए कि मैं पूछ सकू। जब गुरु ही कहने लगा कि अब मेरे पास सिखाने को कुछ भी नहीं, तब बुद्ध ने कहा, लेकिन परम सत्य मुझे नहीं मिला। और तुमने जो सिखाया, वह मैंने पूरा किया। अगर उसमें कोई कमी रही हो तो मुझे बताओ। मैं उसे पूरा करने को तैयार हूं। पर उसने कहा कि नहीं, तुम पूरा कर चुके हो। और अब बताने को मेरे पास कुछ भी नहीं। जितना मैं जानता था, वह मैंने तुमसे कह दिया। उसके आगे तुम कहीं और खोजो। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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