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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-7 निष्क्रिय कर्म व निःशब्द संवाद-ज्ञानी का-प्रवचन-सातवां अध्याय 2: सूत्र 3 इसलिए ज्ञानी निष्क्रिय भाव से अपने कार्यों की व्यवस्था करते हैं तथा निःशब्द द्वारा अपने सिद्धांतों का संप्रेषण करते हैं। अस्तित्व वंद्व है। जो भी किया जाए, उसके साथ ही उससे विपरीत भी होना शुरू हो जाता है। लाओत्से ने पहले दो सूत्रों में अस्तित्व की इस वंद्वात्मकता की बात की है। और अब तीसरे सूत्र में लाओत्से कहता है, "इसलिएदेयरफोर दि सेज मैनेजेज अफेयर्स विदाउट एक्शन-इसलिए ज्ञानी निष्क्रिय भाव से अपने कार्यों की व्यवस्था करता है।' इसे समझना, थोड़े गहरे में जाना पड़े। अगर ज्ञानी किसी से कहे कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं, तो वह साथ ही घृणा को जन्म दे रहा है। अगर ज्ञानी कहे कि मैं लोगों के हित के लिए काम करता हूं, तो वह अहित को जन्म दे रहा है। अगर ज्ञानी कहे कि मैं तुम्हें जो । देता हूं, यह सत्य है, तो वह असत्य को जन्म दे रहा है। लाओत्से ने पहले कहा कि प्रत्येक चीज द्वंद्व से भरी है। यहां हम कुछ भी करेंगे, तो उससे विपरीत तत्काल हो जाता है। विपरीत बचेगा नहीं। विपरीत से बचने का उपाय नहीं है। हमने कुछ किया कि हम विपरीत के जन्मदाता हो जाते हैं। हमने किसी की रक्षा की, तो हम किसी को नुकसान पहुंचा देते हैं। और हमने किसी को बचाया, तो हम किसी को मिटाने का कारण बन जाते हैं। यदि वंद्व जीवन का सार है, तो हम जो भी करेंगे, उससे विपरीत भी तत्काल हो जाएगा। चाहे हमें ज्ञात हो, चाहे हमें ज्ञात न हो; चाहे हम पहचान पाएं, चाहे हम न पहचान पाएं; चाहे किसी को ज्ञात हो और चाहे किसी को ज्ञात न हो; लेकिन ऐसा नहीं हो सकता, यह असंभव है कि हम एक को पैदा करें और उससे उलटा पैदा न हो जाए। इसलिए लाओत्से कहता है, ज्ञानी बिना सक्रिय हुए व्यवस्था करते हैं। बिना सक्रिय हुए व्यवस्था करते हैं। अगर वे चाहते हैं कि आपका मंगल हो, तो आपके मंगल के लिए सक्रिय नहीं होते। अगर वे मंगल के लिए सक्रिय होंगे, तो आपका अमंगल भी हो जाएगा। यह बहुत कठिन बात है। जटिल भी और गहन भी। क्योंकि साधारणतः हम सोचते हैं कि अगर किसी का मंगल करना हो, तो मंगल करना पड़ेगा। अगर किसी की सेवा करनी है, तो सेवा करनी पड़ेगी। और किसी को सहायता पहुंचानी है, तो सहायता पहुंचानी पड़ेगी। लेकिन लाओत्से जिस सूत्र को समझा रहा है, वह यह है कि तुम जब सेवा करोगे, तभी तुम उसे गुलाम बनाने का यंत्र भी पैदा कर दोगे। जब तुम किसी को प्रेम करोगे, तो तुम घृणा का भी आयोजन निर्मित कर दोगे। क्योंकि प्रकट होते ही प्रेम घृणा को जन्म देता है; सक्रिय होते ही सेवा शत्रुता बन जाती है। तो ज्ञानी क्या करेगा? क्या ज्ञानी प्रेम नहीं करेगा? क्या ज्ञानी मंगल के लिए कामना नहीं करेगा? क्या ज्ञानी सेवा के लिए आतुर नहीं होगा? अगर वह ज्ञानी है, तो लाओत्से कहता है, ही मैनेजेज अफेयर्स विदाउट एक्शन, वह बिना सक्रिय हुए व्यवस्था करेगा। वह अगर प्रेम भी करेगा, तो प्रेम को सक्रियता नहीं देगा। उसका प्रेम कभी भी किसी क्रिया में प्रकट नहीं होगा। क्रिया तो दूर, वह अपने प्रेम को शब्द भी नहीं देगा। वह यह भी नहीं कहेगा कि मैं प्रेम करता हूं। इसलिए नहीं कहेगा कि जो कहता है, मैं प्रेम करता हूं, यह कहने से ही इस शब्द के आस-पास घृणा की रेखा खिंच जाती है। जब मैं किसी से कहता हूं, मैं प्रेम करता हूं, तो एक तो यह बात साफ हुई कि पहले मैं प्रेम नहीं करता था, अब करता हूं। और जब मैं कहता हूं, मैं प्रेम करता हूं, तो इसकी शर्ते होंगी कि किस स्थिति में मैं करूंगा और किस स्थिति में नहीं करूंगा। या कि यह बेशर्त होगा? कहा हुआ कोई भी शब्द बेशर्त, अनकंडीशनल नहीं हो सकता। फिर जब मैं कहता हूं, मैं प्रेम करता हूं, तो मानता हूं कि कल नहीं करता था, मानना पड़ेगा कि कल भी हो सकता है न करूं। इस प्रेम के छोटे से द्वीप के आस-पास बड़ा सागर अप्रेम का होगा। असल में, उस सागर से अलग दिखलाने के लिए ही तो मैं घोषणा करता हूं कि मैं प्रेम करता हूं। वह जो अंधेरा घिरा है चारों तरफ, उसमें इस दीए को जलाता हूं। उस अंधेरे के विपरीत ही यह दीया जला रहा हूं। और दीया जला कर मैं अंधेरे को और प्रकट कर रहा हूं, स्पष्ट कर रहा हूं; अंधेरे को भी मजबूत कर रहा हूं। लाओत्से कहता है, ज्ञानी अगर प्रेम करेगा, तो सक्रिय नहीं होगा। इतना भी सक्रिय नहीं होगा कि वह कहे कि मैं प्रेम करता हूं। उसका प्रेम अकर्ममय होगा, इनएक्टिव होगा। उसका प्रेम उसकी घोषणा नहीं, उसका अस्तित्व होगा। उसका प्रेम उसका वक्तव्य नहीं, उसकी आत्मा होगी। वह प्रेम ही होगा। और इसलिए, मैं प्रेम करता हूं, यह कहना उसके लिए उचित नहीं होगा। जो घृणा है, वह कह सकता है, मैं प्रेम करता हूं। लेकिन जो प्रेम ही है, वह कैसे कहेगा कि मैं प्रेम करता हूं? और प्रेम करता हूं, यह तो कहेगा ही नहीं, प्रेम करने के लिए जो आयोजना करनी पड़ती है, जो कर्म करना पड़ता है, वह भी वह करने नहीं जाएगा। उसका प्रेम एक मौन अभिव्यक्ति होगी, एक शून्य अभिव्यक्ति होगी। उसका प्रेम एक मौजूदगी होगी-अघोषित! एक प्रेजेंस होगी, एक उपस्थिति होगी-अप्रचारित, निःशब्द, निष्क्रिय। और बड़े आश्चर्य की बात तो यही है कि ऐसा जो प्रेम है, वह अपने से विपरीत को पैदा नहीं करता, घृणा को पैदा नहीं इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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