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पिछले दो सौ वर्षों में पश्चिम की साइंस का जो बुनियादी आधार था, वह था सर्टेटी, निश्चयात्मकता। क्योंकि विज्ञान अगर निश्चय न हो, तो फिर काव्य में और विज्ञान में फर्क क्या है? विज्ञान को बिलकुल निश्चित होना चाहिए, तभी विज्ञान है। लेकिन अभी पिछले पंद्रह वर्षों से नया सिद्धांत आया है: अनसटैंटी, अनिश्चय। क्योंकि जैसे ही हमने अणु को तोड़ा और इलेक्ट्रान तक पहुंचे, वैसे ही हमको पता चला कि इलेक्ट्रान का जो व्यवहार है, वह अनसन है। उसके बाबत निश्चित नहीं कहा जा सकता कि वह क्या करेगा।
इलेक्ट्रान का व्यवहार जो है, आदमी जैसा है। अगर आदमी सच्चा हो, तो आदमी के बाबत भी नहीं कहा जा सकता कि वह क्या करेगा। हां, झूठे आदमियों के बाबत कहा जा सकता है कि वे क्या करेंगे। वे सुबह उठ कर क्या करेंगे, बराबर कहा जा सकता है। दोपहर क्या करेंगे, बराबर कहा जा सकता है। शाम क्या करेंगे, कहा जा सकता है। सांझ क्या करेंगे, कहा जा सकता है। उनका पूरा भविष्य लिखा जा सकता है कि ये तीन दफे क्रोध करेंगे दिन में, छह दफे सिगरेट पीएंगे, सात दफे यह करेंगे, वह सब कहा जा सकता है। लेकिन आथेंटिक आदमी के बाबत कल का नहीं कहा जा सकता कि वह क्या करेगा। कल सुबह क्या करेगा, नहीं कहा जा सकता।
रात वह आथेटिक आदमी उठ कर और सोई हुई यशोधरा को छोड़ कर चला जाएगा, यह नहीं कहा जा सकता। सोच भी नहीं सकती थी यशोधरा कि यह आदमी जो रात साथ सोया था, एक दिन का बच्चा था अभी पैदा हुआ, यह चुपचाप रात नदारद हो जाएगा! यह उसकी कल्पना के भी भीतर नहीं आ सकता था। कोई कारण ही नहीं दिखाई पड़ता था कि यह आदमी कल सुबह अचानक नदारद हो जाएगा।
आथेंटिक, प्रामाणिक आदमी अनिश्चित होगा। अनिश्चित अर्थात स्वतंत्र होगा। निश्चित अर्थात गुलाम होगा।
हम सोचते थे, पदार्थ तो निश्चित ही होगा, क्योंकि पदार्थ तो पदार्थ है। लेकिन अब पदार्थ रहा नहीं, अब पदार्थ ऊर्जा है, इनर्जी है। और इनर्जी अनिश्चित है। इसलिए पिछले पंद्रह वर्षों में जो विज्ञान की गहनतम खोज है, वह है: प्रिंसिपल ऑफ अनसटेंटी। अब अगर विज्ञान भी अनसन है, तो काव्य में और विज्ञान में अंतर क्या रहेगा?
आइंस्टीन ने अपने अंतिम दिनों में कहा है कि बहुत शीघ्र वह वक्त आएगा कि वैज्ञानिकों के वक्तव्य मिस्टिक्स के वक्तव्य मालूम पड़ने लगेंगे कि ये कोई रहस्यवादियों के वक्तव्य हैं। और एडिंगटन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि जब मैंने सोचना शुरू किया था, तो मैं सोचता था, जगत एक वस्तु है; और अब जब मैं अपना जीवन समाप्त कर रहा हूं, तो मैं कह सकता हूं, जगत एक वस्तु नहीं, एक विचार है। इट रिजेंबल्स मोर ए थॉट दैन ए थिंग।
अब विचार और वस्तु में बड़ा फर्क है। और वैज्ञानिक कहें कि जगत एक विचार जैसा मालूम पड़ता है, वस्तु जैसा नहीं, तो फिर जिन ऋषियों ने कहा कि जगत एक ब्रह्म है, कुछ फर्क रहा? जिन ऋषियों ने कहा, जगत एक आत्मा है, जगत एक चैतन्य है। तो अगर एडिंगटन कहता है, गणितज्ञ, वैज्ञानिक कहता है कि जगत एक विचार जैसा मालूम पड़ता है, वस्तु जैसा नहीं! तो एडिंगटन के वक्तव्य में और ऋषियों के वक्तव्य में फासला नहीं रह जाता।
विज्ञान जगह-जगह से टूट रहा है, उसका घर गिर रहा है। और यह सदी पूरी होते-होते विज्ञान का भवन धीरे-धीरे विनष्ट हो जाएगा।
और उसकी जगह एक बहुत नई जीवन-चेतना ले लेगी। और वह जीवन-चेतना सहयोग की, विराट के साथ एक होने की! वह जीवन की जो धारा होगी, ब्रह्मवादी होगी, वस्तुवादी नहीं।
समन्वय नहीं होगा दोनों के बीच। यह खंड तो टूटेगा और गिरेगा। और विराट का अभ्युदय इसके भीतर से हो सकता है। होना चाहिए। होने की पूरी संभावना है।
आज इतना ही।
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