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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free अब इसमें फर्क होंगे। सारी आधारशिला बदल जाएगी। जीवन के साथ संघर्ष का विज्ञान सोचता ही विनाश करने की भाषा में है। समझ लें-उदाहरण लें, तो जल्दी आसानी हो जाए-समझ लें कि मच्छर हैं, मलेरिया आता है। तो एरिस्टोटेलियन दिमाग सोचेगा कि मच्छरों को खतम कर दो, तो मलेरिया नहीं आएगा। विनाश की भाषा फौरन खयाल में आएगी, मच्छरों को नष्ट कर दो, मलेरिया नहीं आएगा। लेकिन मच्छरों के होने से कुछ और भी आ रहा हो सकता था; वह भी रुक जाएगा। मच्छरों की मौजूदगी कुछ और भी कर रही हो सकती थी; वह भी रुक जाएगा। पर उसका पता तो देर से लगेगा। शायद तब लगे, जब तक कि मच्छर न बचें। और तब मच्छर को रिप्लेस करने के लिए हमें कुछ और उपाय करना पड़े! लाओत्से के सामने अगर सवाल आएगा कि मच्छर है, हम क्या करें? तो लाओत्से इस भाषा में नहीं सोचेगा कि मच्छर को नष्ट कर दो। दो ढंग हो सकते हैं मच्छर के साथ सहयोग करने के। या तो आदमी के शरीर को बदला जाए कि मच्छर नुकसान न पहुंचा पाए। मच्छर को विनाश करने की कोई जरूरत नहीं है। या मच्छर के शरीर को बदला जाए कि मच्छर मित्र हो जाए, शत्रु न रह जाए। ये दोनों बातें हो सकती हैं। अगर लाओत्से के ढंग से सोचा गया होता तो यही होता कि हम कोई सामंजस्य खोजते। अगर मच्छर को बिलकुल मारा जा सकता है, तो इसमें कौन सी कठिनाई है कि मच्छर को विषरहित किया जा सके? अगर मच्छर को मारा जा सकता है, विषरहित किया जा सकता है, तो इसमें कौन सी कठिनाई है कि मनुष्य के रेजिस्टेंस को बढ़ाया जा सके? लाओत्से तो पसंद करेगा कि मनुष्य का रेजिस्टेंस बढ़ा दिया जाए। दो उपाय हैं। धूप पड़ रही है बाहर। तो एक रास्ता तो यह है कि मैं छाता लगा कर जाऊं। तब मैं धूप को दुश्मन मान कर रोक रहा हूं। और एक रास्ता यह है कि मैं शरीर को ऐसा बलिष्ठ करके जाऊं कि धूप मुझे पीड़ा न दे पाए। लाओत्से कहेगा कि उचित है कि शरीर को बलिष्ठ करके जाओ; और तब धूप तुम्हें मित्र मालूम पड़ेगी। क्योंकि न इतनी धूप पड़ती, न तुम इतना शरीर को बलिष्ठ करके जाते। शरीर को ऐसा बलिष्ठ करके जाओ कि धूप शत्रु मालूम न पड़े। धूप तो कमजोर शरीर को शत्रु मालूम पड़ रही है। यह जो हमारा, हम जिस ढंग से सोचते हैं, उस पर निर्भर करता है कि हम कोई सहयोग का मार्ग खोजें। जीवन और हमारे बीच सहयोग स्थापित हो। संघर्ष अंततः हमें आत्मघात में ले जाएगा। क्योंकि संघर्ष हम कहां तक करेंगे? जो भी, संघर्ष की भाषा यह है कि जो भी हमें नुकसान पहुंचाता हुआ मालूम पड़े, उसे समाप्त करो। अगर हम मच्छरों को समाप्त करते हैं, और कल हमें लगता है कि चीनी हमें नुकसान पहुंचाते मालूम पड़ते हैं, तो हम उन्हें क्यों समाप्त न करें? परसों हमें लगता है कि भारतीय नुकसान पहुंचाते मालूम पड़ते हैं, हम उन्हें समाप्त क्यों न करें? जो भाषा है युद्ध की, वह सब जगह लागू होगी। जो भी नुकसान पहुंचाता मालूम पड़ता है, उसे समाप्त करो। अमरीका सोचे, रूस को समाप्त करो; रूस सोचे, अमरीका को समाप्त करे। लेकिन एटामिक खोज के बाद रूस और अमरीका, दोनों के दिमाग में एक बात साफ हो गई कि समाप्त करने की भाषा अब न चलेगी। क्योंकि अब कोई भी किसी को समाप्त करे, तो इस आशा में नहीं कर सकता कि हम बचेंगे। हां, दस मिनट का फर्क पड़ेगा समाप्त होने में। बस इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। जो शुरू करेगा, वह दस मिनट बाद समाप्त होगा। जो आक्रामक होगा, वह दस मिनट बाद समाप्त होगा। जो डिफेंसिव होगा, वह दस मिनट पहले समाप्त हो जाएगा। लेकिन घोषणा करने को भी वक्त नहीं मिलेगा कि हम जीत गए हैं। तब रूस और अमरीका के मस्तिष्क में भी पिछले दस वर्षों में निरंतर एक खयाल आया है कि सहयोग की भाषा में सोचें। संघर्ष की भाषा का अब कोई अर्थ नहीं है। साथी होकर को-एक्झिस्टेंस की भाषा में सोचें, सह-अस्तित्व की भाषा में सोचें। मगर आदमी ही सह-अस्तित्व की भाषा में सोचे तो नहीं होगा। सह-अस्तित्व की पूरी भाषा! फिर हम प्रकृति की तरफ भी वही भाषा होनी चाहिए। फिर बीमारियों की तरफ भी वही भाषा होनी चाहिए। फिर हर चीज की तरफ वही भाषा होनी चाहिए। लाओत्से की भाषा सह-अस्तित्व की भाषा है-समग्र के प्रति। और ऐसा नहीं हो सकता कि हम कहें कि हम सिर्फ फलां आदमी के प्रति हमारा सहअस्तित्व का भाव है, बाकी में हम संघर्ष जारी रखेंगे। यह नहीं हो सकता। क्योंकि अगर हमने बाकी के साथ संघर्ष जारी रखा, तो हम तलाश रखेंगे मौके की कि कभी इस आदमी को भी समाप्त कर दें तो झंझट से मुक्त हो जाएं। नए विज्ञान का जन्म होगा-लाओत्से की समझ के अनुसार। और लाओत्से की समझ जो है, अगर ठीक से हम समझें, तो लाओत्से का मतलब होता है पूरब का मस्तिष्क, दि ईस्टर्न माइंड। लाओत्से की समझ का अर्थ होता है पूर्वीय मन, पूरब के सोचने का ढंग यह है। अरस्तू का मतलब होता है पश्चिम के सोचने का ढंग। इसे ऐसा अगर हम कहें, पश्चिम के सोचने के ढंग का अर्थ होता है तर्क, पूरब के सोचने के ढंग का अर्थ होता है अनुभूति। एक विज्ञान अब तक जो खड़ा हुआ है, वह आब्जेक्टिव है, वस्तु की खोज-बीन से खड़ा हुआ है। लाओत्से के साथ, योग के साथ, पतंजलि और बुद्ध के साथ कभी कोई विज्ञान खड़ा होगा, तो वह मनुष्य के मन की खोज से होगा, वस्तु की खोज से नहीं। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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