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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free संगीत के स्वर - विपरीत स्वर, विरोधी स्वर- संयुक्त होकर, लयबद्ध होकर, श्रेष्ठतर संगीत को जन्म देते हैं। जिसको हम हार्मनी क हैं, संगीत की लय कहते हैं, वह विपरीत स्वरों का जमाव है। जब हम शोरगुल करते हैं तब भी हम उन्हीं ध्वनियों का उपयोग करते हैं, जिन ध्वनियों का उपयोग हम संगीत के पैदा करने में करते हैं। फर्क क्या होता है? शोरगुल में वे ही ध्वनियां अराजक होती हैं, कोई तालमेल नहीं होता उनमें। संगीत में वे ही ध्वनियां तालयुक्त हो जाती हैं; एक-दूसरे के साथ सहयोग में बंध जाती हैं। इस मकान को गिरा कर हम ईंटों का ढेर लगा दें, तो भी पदार्थ तो यही होगा, ईंटें यही होंगी। फिर इन्हीं ईंटों का फैलाव करके हम एक सुंदर मकान बना लेते हैं। स्वर और ध्वनियां तो वही हैं, जो बाजार के शोरगुल में सुनाई पड़ती हैं। वे ही स्वर हैं, वे ही ध्वनियां हैं। संगीत में क्या होता है? हम उनकी अराजकता को हटा देते हैं, उनकी आपस की कलह को हटा देते हैं, और विपरीत के बीच भी मैत्री स्थापित कर देते हैं। वे ही स्वर, वे ही ध्वनियां अपूर्व संगीत बन जाती हैं। और अगर कोई सोचता हो कि हम एक ही तरह के स्वर से संगीत पैदा कर लेंगे, तो वह पागल है। एक ही तरह के स्वर से संगीत पैदा नहीं होगा। संगीत के लिए अनेक स्वर चाहिए, विभिन्न स्वर चाहिए; विपरीत, विरोधी दिखने वाले स्वर चाहिए; तभी संगीत निर्मित होगा । यह जो हमारे मन में बचपन से ही बैठी हुई एरिस्टोटेलियन धारणा है, उससे मुक्त हुए बिना लाओत्से को समझना बहुत कठिन है। हमारे मन में सदा ही यही बात है कि हम, चीजों को देखने का हमारा जो गेस्टाल्ट है, हमारा जो ढंग है, वह सदा विपरीत में है। हम कहीं भी कुछ देखते हैं, तो तत्काल विपरीत की भाषा में उसे तोड़ कर सोचते हैं-कहीं भी! अगर एक व्यक्ति आपकी आलोचना कर रहा है, तो आप तत्काल सोचते हैं वह शत्रु है। लेकिन वह मित्र भी हो सकता है। और जो जानते हैं, वे कहेंगे, मित्र है। कबीर तो कहते हैं, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। वह जो तुम्हारी निंदा करता हो, उसको तो अपने ही पास में आंगन-कुटी छाप कर, अच्छी जगह बना कर पास ही ठहरा लो। क्योंकि वह ऐसी-ऐसी काम की बातें कहेगा कि जो हो सकता है तुमसे कोई भी न कहे। कम से कम जो तुम्हारे मित्र हैं, वे कभी न कहेंगे। वह ऐसी बातें कह सकता है, जो तुम्हें अपने आत्मदर्शन में उपयोगी हो जाएं। वह ऐसी बातें कह सकता है, जो तुम्हें स्वयं से मिलाने में मार्ग बन जाएं। उसे तो अपने पास ही ठहरा लो । अब कबीर लाओत्से की बात कह रहे हैं। वह जो तुम्हारी निंदा कर रहा है, उसके प्रति भी शत्रुता का भाव न लो। कोई जरूरत नहीं है। उसकी निंदा का भी उपयोग हो सकता है। उसकी निंदा भी एक समस्वर संगीत बन सकती है। लेकिन हम उलटे लोग हैं! निंदा की तो बात दूसरी, अगर कोई आकर अचानक हमारी प्रशंसा करने लगे, तो भी हम चौंकते हैं कि कोई गड़बड़ होगी। नहीं तो कोई किसी की प्रशंसा करता है! जरूर कोई मतलब होगा। खुशामद के पीछे जरूर कोई मतलब होगा। प्रशंसा कर रहा है, तो जरूर अब कुछ न कुछ मांग करेगा। या तो कर्ज लेने आया होगा, या पता नहीं आगे क्या बात निकले! प्रशंसा सुन कर भी हम चौंक जाते हैं, निंदा की तो बात बहुत दूर है। लाओत्से ... जीवन को देखने की जो हमारी व्यवस्था है, एक व्यवस्था तो यह है कि हम सारे जगत की शत्रुता में खड़े हैं। बीमारी भी दुश्मन है, मौत भी दुश्मन है, बुढ़ापा भी दुश्मन है। आस-पास के लोग भी दुश्मन हैं, प्रकृति भी दुश्मन है, समाज भी दुश्मन है। सारा जगत, सारा परमात्मा हमारे खिलाफ लगा हुआ है। और एक हम हैं। इस सारे संघर्ष को पार करके हमें जीना है। एक तो यह गेस्टाल्ट है। एक तो यह ढंग है। और दूसरा ढंग यह है कि चांद, तारे और आकाश और पृथ्वी और परमात्मा और समाज और पशु और पक्षी और वृक्ष और पौधे और सब- बीमारी भी, दुश्मन भी, मौत भी मेरे साथी हैं, संगी हैं। सब मेरे जीवन के हिस्से हैं। उन सब के साथ ही मैं हूं। मैं उनके हो पाऊंगा। यह दूसरा गेस्टाल्ट है। यह जिंदगी का दूसरा ढंग है। निश्चित ही, पहले ढंग का अंतिम परिणाम चिंता होगी, एंग्जाइटी होगी। अगर सारी दुनिया से लड़ना ही लड़ना है, चौबीस घंटे, सुबह से सांझ तक लड़ना ही लड़ना है, तो जिंदगी आनंद नहीं हो सकती। और लड़ कर भी मरना ही पड़ेगा। रोज-रोज हारना ही पड़ेगा। क्योंकि लड़ कर भी कौन जीता है? मौत तो आएगी, बुढ़ापा आएगा ही, बीमारी आएगी ही; लड़-लड़ कर भी सब आएगा। और हम लड़ते ही रहेंगे, और यह सब आता ही रहेगा, तो इसका अंतिम परिणाम क्या होगा? हम सिर्फ खोखले हो जाएंगे और चिंता के सिवाय हमारे भीतर कोई अस्तित्व नहीं रह जाएगा। पश्चिम के विज्ञान के चिंतन ने करीब-करीब ऐसी हालत पैदा कर दी है। हर चीज से लड़ना है, सब चीज से भयभीत होना है। क्योंकि जब लड़ना है, तो भयभीत होगे। और जब लड़ना है, तो हर एक के विपरीत सुरक्षा का आयोजन करना है। हिटलर शादी नहीं किया इसीलिए, कि शादी कर ले, तो कम से कम एक स्त्री तो कमरे में सोने की हकदार हो जाएगी और रात वह गर्दन दबा दे ! अगर सारी दुनिया से ही संघर्ष है...। फ्रायड के हिसाब से, पति-पत्नी के बीच जो संबंध है, वह एक कलह है, एक कांफ्लिक्ट । वह अरस्तू के विचार का फैलाव है सब पूरा पश्चिम का चिंतन ! पति और पत्नी के बीच जो संबंध है, फ्रायड उसे कहता है, ए सेक्सुअल वार। वह कोई प्रेम वगैरह नहीं है। वह सिर्फ एक काम युद्ध है, जिसमें पति पत्नी को डामिनेट करने की कोशिश में लगा है, पत्नी पति को डामिनेट करने की कोशिश में लगी है। जो होशियार हैं, वे इस अधिकार की और डामिनेशन की कोशिश को शिष्ट ढंगों से करते हैं। जो गंवार हैं, वे सीधा लट्ठ उठा कर संघर्ष कर रहे हैं। बाकी संघर्ष है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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