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यह लाओत्से क्यों कहता है? यह इसलिए कहता है कि अगर यह समझ में आ जाए, तो आपके मन में एक अपूर्व स्वीकृति का भाव आ जाएगा। तब आप मृत्यु से भयभीत न रहेंगे। तब आप जानेंगे, वह जीवन का अनिवार्य अंग है। तब मृत्यु को भी स्वीकार और स्वागत करने की क्षमता होगी। तब आप जानेंगे, जब जीवन को चाहा, तभी मृत्यु भी चाह ली गई है। जब मैंने जीवन की तरफ पैर उठाए, तब मैं मृत्यु की तरफ चला ही गया हूं। तब आप जानेंगे कि अकेले जीवन को बचाने की बात मूढ़तापूर्ण है, स्टुपिड है। जीवन बचेगा ही मृत्यु के साथ। अगर मैं चाहता हूं जीवन, तो मृत्यु को भी चाहूं। और अगर मैं नहीं चाहता हूं मृत्यु को, तो जीवन को भी न चाहूं।
और दोनों ही स्थितियों में अपूर्व ज्ञान उत्पन्न होता है। या तो कोई व्यक्ति जीवन और मृत्यु को दोनों ही चाहना छोड़ दे, तो भी परम वीतरागता को उपलब्ध हो जाता है। और या जीवन और मृत्यु को एक साथ चाह ले और भेंट कर ले, तो भी परम वीतरागता को उपलब्ध हो जाता है। या तो वंद्व छोड़ दिया जाए, या द्वंद्व पूरा का पूरा अंगीकार कर लिया जाए, तो आप द्वंद्व के बाहर हो जाते
लेकिन हमारा मन ऐसा होता है, एक को बचा लें और दूसरे को छोड़ दें। मन कहता है, जीवन बचाने जैसा है, मृत्यु छोड़ देने जैसी है। मन कहता है, प्रेम बचाने जैसा है, घृणा छोड़ देने जैसी है। मन कहता है, मित्र बच जाएं, शत्रु छूट जाएं। मन कहता है, सम्मान मिले, अपमान न मिले। मन कहता है, स्वास्थ्य तो हो, बीमारी कभी न आए। मन कहता है, जवानी तो हो, बुढ़ापा न आए। मन कहता है, सुख तो बचे, दुख से बचना हो जाए।
और जब मन ऐसे चुनाव करता है, तभी जीवन एक संकट और एक चिंता और एक व्यर्थ का तनाव हो जाता है। इस दो में से एक को चुनना ही दुख है। या तो दोनों को छोड़ दें या दोनों को स्वीकार कर लें, तो परम आनंद की और परम तृप्ति की अवस्था पैदा होती है।
लाओत्से यह दिखाना चाहता है कि तुम चाहे कुछ भी करो, चाहे तुम पकड़ो, चाहे तुम छोड़ो, वंद्व को पृथक-पृथक नहीं किया जा सकता। वे संयुक्त हैं। संयुक्त भी हम कहते हैं भाषा में, वे एक ही हैं। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। ऐसा ही, जैसे कोई आदमी सोच ले कि श्वास मैं भीतर तो ले जाऊं, लेकिन बाहर न निकालूं। तो वह आदमी मरेगा। क्योंकि जिसे हम बाहर की श्वास कहते हैं, बाहर जाने वाली श्वास, वह और भीतर जाने वाली श्वास एक ही श्वास के दो नाम हैं। या तो दोनों को ही छोड़ दो, या दोनों को बचा लो। एक को बचाने और एक को छोड़ने की सुविधा नहीं है। लाओत्से ये सारे उदाहरण इसलिए लेता है।
वह कहता है, “अस्तित्व, अनस्तित्व मिल कर एक-दूसरे के भाव को जन्म देते हैं।'
वे संगी हैं, साथी हैं, शत्रु नहीं। एक-दूसरे के विपरीत नहीं, जोड़ा हैं।
“असरल और सरल एक-दूसरे के भाव की सृष्टि करते हैं।'
अगर कोई सरल होना चाहे, चेष्टा करे, जैसा कि साधु करते हैं सरल होने की चेष्टा, और इसलिए साधु जितनी सरल होने की चेष्टा करते हैं, उतने ही जटिल और कांप्लेक्स हो जाते हैं। सरल होने की कोई चेष्टा करेगा, तो जटिल हो जाएगा। हां, यह हो सकता है कि सरल होने में वह दो वस्त्र बचा ले, लंगोटी बचा ले, एक बार भोजन करने लगे, झाड़ के नीचे सोने लगे, यह सब हो सकता है, लेकिन फिर भी सरलता नहीं होगी। झाड़ के नीचे सोना इतना प्रयोजन और इतनी आयोजना से है, झाड़ के नीचे सोना इतनी व्यवस्था और अनुशासन से है, झाड़ के नीचे सोना इतने अभ्यास से है कि इस अभ्यास के पीछे जो चित्त है, वह जटिल हो जाएगा, वह कठिन हो जाएगा।
सरलता का अर्थ ही यही है कि महल के भीतर भी व्यक्ति ऐसे ही सो जाए, जैसे झाड़ के नीचे।
हमें एक तरह की कठिनता दिखाई आसानी से पड़ जाती है। अगर हम एक सम्राट को, जो महलों में रहने का आदी रहा हो, कीमती वस्त्र जिसने पहने हों, आज अचानक उसे लंगोटी लगा कर खड़ा कर दें, तो उसे बड़ी कठिनाई होगी। लेकिन कभी आपने सोचा कि जो लंगोटी लगाने का आदी होकर झाड़ के नीचे बैठा रहा हो, उसे आज हम सिंहासन पर बैठा कर कीमती वस्त्र पहना दें, तो कठिनाई कुछ कम होगी?
उतनी ही कठिनाई होगी। ज्यादा भी हो सकती है! ज्यादा भी हो सकती है, क्योंकि महल में रहने के लिए विशेष अभ्यास नहीं करना पड़ता, झाड़ के नीचे रहने के लिए विशेष अभ्यास करना पड़ता है। सुंदर वस्त्र पहनने के लिए कोई आयोजना और साधना नहीं करनी पड़ती, निर्वस्त्र होने के लिए साधना और आयोजना करनी पड़ती है। तो वह जो निर्वस्त्र खड़ा है, उसे अगर अचानक हम वस्त्र दे दें, तो हमारे वस्त्रों से वह बड़ा ही कष्ट पाएगा। उसके भीतर कठिनाई होगी।
डायोजनीज, एक फकीर, सुकरात से मिलने गया था। सुकरात बहुत सरल व्यक्ति था-वैसा सरल व्यक्ति, जिसने सरलता को साधा नहीं है। क्योंकि जिसने साधा, वह तो जटिल हो गया। सरलता भी साध कर लाई जाए, कल्टीवेट करनी पड़े, तो जटिल हो जाती है।
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