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ताओ उपनिषाद (भाग -1) प्रवचन- 6
विपरीत स्वरों का संगीत - प्रवचन- छठवां अध्याय 2 : सूत्र 2
इस प्रकार अस्तित्व और अनस्तित्व मिल कर एक-दूसरे के भाव को जन्म देते हैं; असरल और सरल एक-दूसरे के भाव की सृष्टि करते हैं; विस्तार और संक्षेप एक-दूसरे की आकृति का निर्माण करते हैं; उच्चता और नीचता का भाव एक-दूसरे
के विरोध पर अवलंबित हैं; संगीत के स्वर और ध्वनियां परस्पर संबद्ध होकर ही समस्वर बनती हैं, और पूर्वगमन एवं अनुगमन से ही क्रम के भाव की उत्पत्ति होती है।
जोविरोधी है, जो विपरीत है, वही संगी भी है, वही साथी भी। जो शत्रु है, जो दुश्मन है, वही मित्र भी है, वही सगा भी
लाओत्से विरोधी को विरोधी नहीं देखता, दूर को दूर नहीं मानता, विपरीत को विपरीत नहीं। लाओत्से का कहना है, सब दूरियां निकटता से ही तौली जाती हैं। और सब निकटताएं दूरियों का ही छोटा रूप हैं। शुभ रेखा खींचनी हो, तो अंधेरी, काली पृष्ठभूमि की जरूरत पड़ती है।
इसलिए जो कहता है कि सफेद काले के विरोध में है, वह गलत कहता है; क्योंकि सफेद को उभार कर दिखाने के लिए काले का ही उपयोग करना पड़ता है। जो कहता है कि सुबह रात को नष्ट कर देती है, वह भ्रांत है; सच तो यही है कि सुबह रात से ही जन्म पाती है।
जिन चीजों को हम विरोध में देखते हैं, लाओत्से उन्हें संयोग में देखता है। पूरा गेस्टाल्ट, देखने का ढंग लाओत्से का, हमसे विपरीत है। हम जहां चीजों में तनाव देखते हैं, वहां लाओत्से आकर्षण देखता है। जहां हम देखते हैं सुस्पष्ट रूप से कि कोई हमें मिटाने का उपाय कर रहा है, वहां लाओत्से कहता है, उसके बिना हम हो ही न सकेंगे। वह जो हमें मिटाने का उपाय कर रहा है, उसके बिना हमारे होने की कोई संभावना नहीं है। इसे वह उदाहरण के लिए एक-एक चीज में लेता है।
वह कहता है, अगर दो न होंगे, तो एक के होने की कोई जगह न रह जाएगी। गणित का एक उदाहरण वह ले रहा है। गणितज्ञ स्वीकार करते हैं कि अगर हम एक की संख्या को बचाना चाहें, तो हमें दो के बाद की सारी संख्याएं बचानी पड़ेंगी। अगर हम दो के बाद की सारी संख्याओं को मिटा डालें, तो एक में कोई भी अर्थ न रह जाएगा। एक में जो भी अर्थ है, वह दो के कारण ही है।
सोचें हम, अगर एक अकेला आंकड़ा हो हमारे पास, तो उसमें क्या अर्थ होगा? व्हाट इट विल मीन? उसमें कोई भी अर्थ नहीं होगा। वह अर्थहीन होगा। उसमें जो अर्थ आता है, वह तो दोतीन-चार, वह नौ तक जो फैला हुआ विस्तार है, उसी से आता है। अगर हम एक के बाद की सारी संख्याएं हटा दें, तो एक अर्थहीन हो जाएगा।
लाओत्से कहता है, एक दो से अलग नहीं है, दो का ही हिस्सा है। वह कहता है, अगर हम ऊंचाई को हटा दें, तो नीचाई क्या होगी ? अगर हम पर्वत-शिखरों को मिटा दें, तो खाइयां कहां बचेंगी? कैसे बचेंगी? यद्यपि खाइयां विपरीत मालूम पड़ती हैं पर्वत के शिखर से । पर्वत का शिखर मालूम होता है आकाश को छूता हुआ; खाइयां मालूम होती हैं पाताल को छूती हुई। पर लाओत्से कहता है, खाइयां बनती हैं पर्वत के निकट पर्वत के ही कारण । असल में, खाई पर्वत के शिखर का ही दूसरा हिस्सा है, उसका ही दूसरा पहलू है। एक को हम मिटाएंगे, दूसरा मिट जाएगा। अगर हम शिखर बचाना चाहें, खाइयां मिटाना चाहें, तो शिखर न बचेंगे।
हम सदा ऐसा ही देखते हैं कि खाई उलटी है, शिखर उलटा है।
लाओत्से कहता है, खाई ही शिखर का आधार है; शिखर ही खाई का जन्मदाता है। वे दोनों संयुक्त हैं; उन्हें अलग करने का उपाय नहीं है। लाओत्से कहता है, जिसे हम अलग न कर सकें, उसे विपरीत क्यों कहें? जिसे हम अलग न कर सकें, उसे विपरीत क्यों कहें?
नेपोलियन का एक जन्मजात शत्रु मर गया था। तो नेपोलियन की आंख में आंसू आ गए। पास कोई मित्र बैठा था, उसने पूछा कि आपको प्रसन्न होना चाहिए कि आपका जन्मजात शत्रु मर गया !
नेपोलियन ने कहा, यह मैंने कभी सोचा ही नहीं था। लेकिन आज जब मेरा जन्मजात शत्रु मर गया है, जिससे मेरी सदा की शत्रुता थी और जिससे कभी मित्रता की कोई आशा न थी, तो आज जब वह मर गया है, तब मैं पाता हूं कि मेरा कुछ हिस्सा कम हो गया। अब मैं वही कभी न हो सकूंगा, जो उसकी मौजूदगी में था ।
नेपोलियन को यह जो प्रतीति है, यह लाओत्से की धारणा को स्पष्ट करेगी। नेपोलियन कहता है, मेरे शत्रु के मर जाने से मुझमें भी कुछ मर गया, जो उसकी बिना मौजूदगी के अब कभी न हो सकेगा। मैं कुछ कम हो गया। मुझमें कुछ था, जो उसी की वजह से था । आज वह नहीं है, तो मेरे भीतर भी वह बात नहीं रह गई ।
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