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कामवासना है समस्या, पर उसके संबंध में जानने में भी डर लगता है। इसलिए जो जनाए, वह दुश्मन मालूम पड़ता है। गीता से तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। मजे से सुनो और घर चले जाओ। वह जिंदगी को कहीं छूती नहीं। उससे अपना कोई लेना-देना नहीं। बाहर हम खड़े रहते हैं, गीता की धारा अलग बह जाती है।
मैंने कहा कि तुम आदमी कैसे हो? और यह एक आदमी का मामला नहीं है। न मालूम कितने लोगों को मैं जानता हूं, जिनका प्रश्न वह...। लेकिन इसकी स्वीकृति भी तो नहीं होनी चाहिए मन में कि यह मेरा प्रश्न है।
इसको वह मुझसे कहने लगे कि यह प्राइवेट मैं आपसे पूछता हूं, निजी आपसे पूछता हूं, इसको पब्लिक में कहने की कोई जरूरत नहीं
है।
मैंने कहा, जिस तरह तुम्हें निजी यह सवाल है, ऐसा सबका यह निजी सवाल है। और सभी पब्लिक में गीता सुनना चाहते हैं। तो निजी मैं एक-एक आदमी को क्या और कहां बताता फिरूंगा? और जो असली तुम्हारी समस्या है, वह तुम उठाने तक में डरते हो। और जो तुम्हारी समस्या नहीं है, उसको सुनने में मजा लेते हो। तो हजारों साल बीत जाते हैं और आदमी वैसे का वैसा बना रहता है।
अपनी समस्या को पकड़ें, निष्कर्ष पहले से लेकर मत जाएं। निष्कर्ष से जो शुरू करेगा, वह निष्कर्ष पर कभी नहीं पहुंचता। समस्या से शुरू करें। निष्कर्ष हमें पता नहीं है, यह मान कर शुरू करें। हमें मालूम नहीं कि क्रोध अच्छा है कि बुरा है, सुंदर है कि असुंदर है-है। अब हम इसे पूरा जान लें कि क्या है?
और बड़े मजे की बात यह है, जो पूरा जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है। और जो मुक्त होना चाहता है, वह पूरा जान नहीं पाता। यह जो कठिनाई है, यह खयाल में ले लें। जो मुक्त होना चाहता है, उसने निष्कर्ष पहले ले लिया कि बुरा है। अब वह प्रक्रिया से गुजरने का सवाल ही नहीं। वह कहता है, वह तो मुझे मालूम ही है कि बुरा है; अब इतना ही बता दीजिए कि मुक्त कैसे हो जाऊं! और मुक्त होने की एक ही प्रक्रिया है, पूर्ण बोध। और वह कहता है कि मुझे तो बोध है ही कि बुरा है। तब वह पूर्ण बोध की प्रक्रिया से नहीं गुजरता।
तो आप प्रक्रिया से गुजरें, उसका पूर्ण बोध लें। दूसरे के उधार निष्कर्ष से बचें। बुद्ध कहते हों, महावीर कहते हों-कोई भी कहता हो-मैं कहता हूं, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बुरा है या भला है। आप निष्कर्ष न लें। आप बिना निष्कर्ष के, निष्पक्ष, अनप्रेज्युडिस्ड, बिना किसी धारणा के भीतर प्रवेश कर जाएं। और देखें कि क्या है? क्या है क्रोध? क्रोध से ही जानें कि क्रोध क्या है; आप पूर्व-धारणा को उस पर न थोपें। और जिस दिन आप क्रोध को उसकी परिपूर्ण नग्नता में, उसकी परिपूर्ण विकरालता में, उसकी परिपूर्ण आग में और जहर में जान लेंगे, उसी दिन आप पाएंगे, आप अचानक बाहर हो गए हैं, क्रोध है ही नहीं।
और ऐसा किसी भी वृत्ति के साथ किया जा सकता है। यह वृत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रक्रिया एक ही होगी। बीमारी एक ही है, उसके नाम भर अलग हैं।
आज इतना ही।
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