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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free जो बीमारियों के बाहर हो गया वह चलता नहीं। चलने की कोई जरूरत न रही। वह पहुंच गया। जो बीमारियों से भरा है वह चलता है। चलता ही इसलिए है कि बीमारियां हैं, उनसे छूटना चाहता है। बीमारियों से छूटने के लिए ही चलता है। जिस रास्ते पर भी चलता है, वहीं, उसी रास्ते को संक्रामक करता है। जहां भी खड़ा होता है, वहीं अपवित्र हो जाता है सब। जहां भी खोजता है, वहीं और धुआं पैदा कर देता है। जैसे पानी में कीचड़ उठ गई हो और कोई पानी में घुस जाए और कीचड़ को बिठालने की कोशिश में लग जाए, तो उसकी सारी कोशिश, जो कीचड़ उठ गई है, उसे तो बैठने ही न देगी, और जो बैठी थी, उसे भी उठा लेती है। वह जितना डेस्पेरेटली, जितना पागल होकर कोशिश करता है कि कीचड़ को बिठा दूं, बिठा दूं, उतनी ही कीचड़ और उठ जाती है, पानी और गंदा हो जाता है। लाओत्से वहां से निकलता होगा, तो वह कहेगा कि मित्र, तुम बाहर निकल आओ। क्योंकि जिसे तुम शुद्ध करोगे वह अशुद्ध हो जाएगा, तुम ही अशुद्ध हो इसलिए। तुम कृपा करके बाहर निकल आओ। तुम पानी को अकेला छोड़ दो। तुम तट पर बैठ जाओ। पानी शुद्ध हो जाएगा। तुम प्रयास मत करो। तुम्हारे सब प्रयास खतरनाक हैं। वह पथ अविकारी नहीं हो सकता जिस पथ पर बीमार लोग चलें। और ध्यान रहे, सिर्फ बीमार ही चलते हैं। जो पहुंच गए, जो शुद्ध हुए, जिन्होंने जाना, वे रुक जाते हैं। चलने का कोई सवाल नहीं रह जाता। असल में, हम चलते ही इसलिए हैं कि कोई वासना हमें चलाती है। वासना अपवित्रता है। ईश्वर को पाने की वासना भी अपवित्रता है। मोक्ष पहुंचने की वासना भी अपनी दुर्गंध लिए रहती है। असल में, जहां वासना है, वहीं चित्त कुरूप हो जाएगा। जहां वासना है, वहीं चित्त तनाव से भर जाएगा। जहां वासना है पहुंचने की, जहां आकांक्षा है, वहीं दौड़, वहीं पागलपन पैदा होगा। और सब बीमारियां आ जाएंगी, सब बीमारियां इकट्ठी हो जाएंगी। लाओत्से कहता है, जिस पथ पर विचरण किया जा सके, वह पथ सनातन भी नहीं, अविकारी भी नहीं। क्या ऐसा भी कोई पथ है जिस पर विचरण न किया जा सके? क्या ऐसा भी कोई पथ है जिस पर चला नहीं जाता, वरन खड़ा हो जाया जाता है? क्या ऐसा भी कोई पथ है जो खड़े होने के लिए है? कंट्राडिक्टरी मालूम पड़ेगा, उलटा मालूम पड़ेगा। रास्ते चलाने के लिए होते हैं, खड़े होने के लिए नहीं होते। लेकिन ताओ उसी पथ का नाम है जो चला कर नहीं पहुंचाता, रुका कर पहुंचाता है। लेकिन चूंकि रुक कर लोग पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं। चूंकि लोग रुक कर पहुंच गए हैं, इसलिए उसे पथ कहते हैं। और चूंकि दौड़-दौड़ कर भी लोग संसार के किसी पथ से कहीं नहीं पहुंचे हैं, इसलिए उसे पथ सिर्फ नाम मात्र को ही कहा जा सकता है। वह पथ नहीं है। उस वाक्य का दूसरा हिस्सा है, "जिसके नाम का मिरण हो, वह कालजयी एवं सदा एकरस रहने वाला नाम नहीं है।' दि नेम व्हिच कैन बी नेम्ड, जिसे नाम दिया जा सके, जिसका सुमिरण हो सके, जिसे शब्द दिया जा सके, वह असली नाम नहीं है। वह कालजयी, समय को जीत ले, समय के अतीत हो, समय जिसे नष्ट न कर दे, वैसा वह नाम नहीं है। इसे थोड़ा समझें। सभी चीजों को हम नाम दे देते हैं। सुविधा होती है नाम देने से। व्यवहार-सुलभ हो जाता है, संबंधित होना आसान हो जाता है, विश्लेषण सुगम बन जाता है। नाम न दें तो बड़ी जटिलता, उलझन हो जाती है। नाम दिए बिना इस जगत में कोई गति नहीं। पर ध्यान रहे, जैसे ही हम नाम दे देते हैं, वैसे ही उस वस्तु को, जिसकी असीमता थी, हम एक सीमित दरवाजा बना देते हैं। इसे थोड़ा समझ लें। वस्तुओं को भी जब हम नाम देते हैं, तो हम सीमा दे देते हैं। एक व्यक्ति आपके पास बैठा है। अभी आपको कुछ पता नहीं, वह कौन है। पड़ोस में बैठा है आपके, शरीर उसका आपको स्पर्श करता है। अभी आपको कुछ भी पता नहीं है, वह कौन है। अभी उसकी सत्ता विराट है। फिर आप पूछते हैं और वह कहता है कि मैं मुसलमान हूं, कि हिंदू हूं। सत्ता सिकुड़ गई। जो-जो हिंदू नहीं है-वह छंट गया, गिर गया। उतना सत्ता का हिस्सा टूट कर अलग हो गया। एक सीमित दायरा बन गया। वह मुसलमान है। आप पूछते हैं, शिया हैं या सुन्नी हैं? वह कहता है, सुन्नी हूं। और भी हिस्सा, मुसलमान का भी, गिर गया। आप पूछते चले जाते हैं। और वह अपनी आखिरी जगह पर पहुंच जाएगा बताते-बताते। तब वह बिंदु मात्र रह जाएगा। वह यूक्लिड के बिंदु की भांति हो जाएगा। इतना सिकुड़ जाएगा, इतना छोटा हो जाएगा, आखिर में तो वह एक छोटा सा ईगो, एक छोटा सा अहंकार मात्र रह जाएगा-सब तरफ से घिरा हुआ। लेकिन तब सुविधा हो जाएगी हमें। तब आप अपने शरीर को सिकोड़ कर बैठ सकते हैं, या निकट ले सकते हैं उसको हृदय के। तब आप उससे बात कर सकते हैं, और तब आप अपेक्षा कर सकते हैं कि उससे क्या उत्तर मिलेगा। वह प्रेडिक्टेबल हो गया। अब आप भविष्यवाणी कर सकते हैं। इस आदमी के साथ ज्यादा देर बैठना उचित होगा, नहीं होगा, आप तय कर सकते हैं। इस आदमी के साथ अब व्यवहार सुगम और आसान है। इस आदमी की जो रहस्यपूर्ण सत्ता थी, अब वह रहस्यपूर्ण नहीं रह गई। अब वह वस्तु बन गया इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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