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तो जब क्रोध पकड़े, लोभ पकड़े, कामवासना पकड़े-जब कुछ भी पकड़े-तो तत्काल आब्जेक्ट को छोड़ दें। एक स्त्री को देख कर मन कामातुर हो गया है, एक पुरुष को देख कर मन कामातुर हो गया है; ध्यान रखिए, वही घटना घट रही है, उसने तो सिर्फ चिनगारी दी, शायद उसे पता भी न हो। और क्रोध के मामले में तो थोड़ी चेष्टा भी होती है दूसरे की तरफ से, काम के मामले में तो अक्सर चेष्टा भी नहीं होती दूसरे की तरफ से। एक स्त्री रास्ते से गुजर रही है, और आपके मन में काम पकड़ गया। तब भी आप उसका ही चिंतन करने में लग जाते हैं। तब भी आप नहीं देखते कि भीतर की ऊर्जा, जिसमें काम की लपट पकड़ रही है, वह क्या है? इस भांति हम चूक जाते हैं स्वयं को जानने से, स्वयं के निरीक्षण से। और स्वयं का निरीक्षण न हो, तो जीवन में कोई रूपांतरण नहीं हो सकता।
तो जब काम पकड़े, तत्काल बाहर को भूल जाएं, आब्जेक्ट को भूल जाएं, विषय को भूल जाएं। जिसने काम पकड़ाया, क्रोध पकड़ाया, लोभ पकड़ाया, उसे तत्काल भूल जाएं। और तत्काल ध्यान करें भीतर, कि मेरे भीतर क्या हो रहा है? दबाएं न भीतर; जो हो रहा है, उसे पूरा होने दें। कमरा बंद कर लें। जो हो रहा है, उसे पूरा होने दें। उसको जितना साफ करके देख सकें, उतना बेहतर है।
क्रोध भीतर आ रहा है, तो चिल्लाएं, कूदें, फांदें, बकें, जो करना है, कमरा बंद कर लें। अपने पूरे पागलपन को पूरा अपने सामने करके देख लें। क्योंकि दूसरों ने तो कई बार आपका यह पागलपन देखा; आप ही बच गए हैं देखने से। दूसरे तो इसका काफी मजा ले चुके हैं। दूसरों को आपने काफी रस दिया। आप ही बच गए हैं इस घटना को देखने से। और आपको पता तब चलता है, जब यह सब घटना जा चुकी होती है, नाटक समाप्त हो गया होता है। तब बैठे हुए अपने घर में, पीछे स्मृति में उसको देखते हैं। तब राख ही रह गई होती है। आग तो नहीं रहती।
और ध्यान रखिए, राख से आग का कोई भी पता नहीं चलता है। राख का कितना ही बड़ा ढेर घर में लगा हो, उससे आग के छोटे से अंगारे का भी पता नहीं चलता है। और जिस आदमी ने आग न देखी हो, वह राख को देख कर कोई निष्कर्ष ही नहीं ले सकता कि आग क्या है। कोई कनक्लूजन संभव नहीं है। कोई तर्कशास्त्र राख से आग तक नहीं ले जा सकता कि आग क्या है। अनुमान भी नहीं लग सकता, इनफरेंस भी नहीं हो सकता। और आप जब भी अपने क्रोध को देखते हैं, तब राख की तरह देखते हैं। जब सब जा चुका तब राख का ढेर रह जाता है, आप बैठे उस पर पछता रहे हैं।
नहीं, उससे कोई फायदा न होगा। जब आग जलती है पूरी, तब उसे देखें। और उसे देखने में आसानी पड़ेगी, अगर उसको अभिव्यक्त करें। और ध्यान रखिए, जब आप दूसरे पर अभिव्यक्त करते हैं, तब आप पूरी अभिव्यक्ति कभी नहीं कर पाते। अगर मैं अपनी पत्नी पर नाराज होता हूं या पति पर नाराज होता हूं, या पिता पर या बेटे पर या भाई पर, तो लिमिटेशंस हैं नाराजगी के। क्योंकि कोई पत्नी इतनी नहीं है कि मैं पूरा क्रोध उस पर कर पाऊं। एक सीमा है। एक सीमा तक क्रोध करूंगा, बाकी पी जाऊंगा। पूरा तो नहीं कर सकता हूं। आज तक किसी ने भी पूरा क्रोध नहीं किया है। बाप भी जब छोटे से बेटे पर करता है-हालांकि बेटे की कोई सामर्थ्य नहीं, बाप चाहे तो उसकी गर्दन तोड़ दे-वह भी पूरा नहीं कर पाता। पच्चीस सीमाएं बीच में खड़ी हो जाती हैं। थोड़ा-बहुत कर पाते हैं; तो करने का मजा भी नहीं आ पाता, और पीड़ा भी आ जाती है। उसको देख भी नहीं पाते पूरा। इसलिए कल फिर करेंगे, परसों फिर करेंगे, और सदा अधूरा करेंगे।
अगर क्रोध को पूरा देखना हो, तो अकेले में करके ही पूरा देखा जा सकता है। तब कोई सीमा नहीं होती। इसलिए मैंने वह जो पिलो मेडिटेशन, वह जो तकिए पर ध्यान करने की प्रक्रिया कुछ मित्रों को करवाता हूं, वह इसलिए कि तकिए पर पूरा किया जा सकता है।
जिस मित्र का मैं कल कह रहा था, आज उसके साथी ने मुझे आकर खबर दी है कि आज तो चाकू निकाल कर उसने तकिए को चीरफाड़ डाला है। यह तो मैंने कहा भी नहीं था। हमें एकदम हंसी आएगी कि तकिए को कोई चाकू से कैसे चीरेगा-फाड़ेगा? लेकिन जब जिंदा आदमी को चीर-फाड़ सकते हैं हम, तब हंसी नहीं आती, तो तकिए को चीरने-फाड़ने में कौन सी कठिनाई है? और जब एक
आदमी जिंदा आदमी को भी चीरता-फाड़ता है, तब भी जो रस है वह चीरने-फाड़ने का है, आदमी से कुछ लेना-देना नहीं है। वह तकिए में भी उतना ही रस आ जाता है। और तकिए में रस ज्यादा आ जाता है, क्योंकि तकिए पर कोई भी सीमा बांधने की जरूरत नहीं है।
तो अपने कमरे में बंद हो जाएं और अपने मूल, जो आपकी बीमारी है, उसको जब प्रकट होने का मौका हो, तब उसे प्रकट करें। इसको मेडिटेशन समझें, इसको ध्यान समझें। उसे पूरा निकालें। उसको आपके रोएं-रोएं में प्रकट होने दें। चिल्लाएं, कूद, फांदें, जो भी हो रहा है उसे होने दें। और पीछे से देखें, आपको हंसी भी आएगी। हैरानी भी होगी। यह मैं कर सकता हूं, यह जान कर भी चकित होंगे आप। मन को विस्मय भी पकड़ेगा कि यह मैं कैसे कर रहा हं? और अकेले में? कोई होता, तब भी ठीक था।
एक-दो दफे तो आपको थोड़ी सी बेचैनी होगी, तीसरी दफे आप पूरी गति में आ जाएंगे और पूरे रस से कर पाएंगे। और जब आप पूरे रस से कर पाएंगे, तब आपको एक अदभुत अनुभव होगा कि आप कर भी रहे होंगे बाहर और बीच में कोई चेतना खड़ी होकर देखने भी लगेगी। दूसरे के साथ यह कभी होना मुश्किल है या बहुत कठिन है। एकांत में यह सरलता से हो जाएगा। चारों तरफ क्रोध की लपटें जल रही होंगी, आप बीच में खड़े होकर अलग हो जाएंगे।
और एक दफा इस तरह अलग होकर अपने क्रोध को किसी ने देख लिया, एक दफा इस तरह खड़े होकर किसी ने अपनी कामवासना को देख लिया, लोभ को देख लिया, भय को देख लिया, तो उसके जीवन में एक ज्ञान की किरण फूटनी शुरू हो जाएगी। वह एक अनुभव को उपलब्ध हुआ। उसने अपनी एक ऊर्जा को पहचाना। और अब इस ऊर्जा के द्वारा उसे धोखा नहीं दिया जा सकता। जिस
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