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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free हमारा सारा उपक्रम, बच्चे से लेकर बूढ़े तक, अहंकार के ही आस-पास घूमता है। हम बच्चों को स्कूल में कहते हैं, प्रथम आओ, अन्यथा अपमानित हो। प्रथम आते हो, तो सम्मान है। अच्छे अंक पाते हो, तो सम्मान है। कम अंक पाए, तो अपमान है। फिर वही खेल हम जारी रखते हैं पूरे जीवन में। बूढ़े को भी हम यही कहते हैं कि अगर अच्छा किया, तो ज्यादा अंक पाओगे, स्वर्ग मिलेगा। अच्छा नहीं किया, नर्क जाओगे, अंक कम मिलेंगे। पराजित हो जाओगे, अपमानित हो जाओगे। इस जगत में भी पृथ्वी पर नाम नहीं मिलेगा, परलोक में भी नाम को खोओगे। पर नाम ही! अहंकार के ही आधार पर हम जो नीति खड़ी करते हैं, वह नैतिक नहीं हो पाती है। और तब, तब सारी नीति की व्यवस्था के नीचे अनीति का गहन विस्तार होता चला जाता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति, जो कुशल है अपने को नैतिक दिखाने में, वह नैतिक होने की चिंता छोड़ देता है। क्योंकि असली सवाल तो नाम का है, यश का है, अस्मिता का है-लोग क्या कहेंगे? अगर मैं चोरी करता हूं और नहीं पकड़ा जाता, तो मैं अचोर बना रहता हूं। और नीति ने भी यही कहा था कि लोग बुरा कहेंगे। लोग कहें बुरा कि परमात्मा कहे बुरा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई बुरा कहेगा, किसी के सामने मैं अपमानित होऊंगा। अगर मैं चोरी करके और किसी की भी पकड़ में नहीं आता हूं, तो मैं चोरी भी कर लेता हूं, अहंकार भी बचा लेता हूं। तो हर्ज क्या है? मैं बेईमानी भी कर लेता हूं और अपनी इज्जत भी बचा लेता हूं, तो हर्ज क्या है? इसलिए नैतिकता घूम-फिर कर अंततः प्रवंचना सिद्ध होती है। और जो लोग कुशल हैं, बुद्धिमान हैं, वे अनैतिक होने के कुशल मार्ग खोज लेते हैं और नैतिक दिखावे की व्यवस्था कर लेते हैं। वे दिखाई पड़ते हैं कुछ और, हो जाते हैं कुछ और। लाओत्से कहता है, हम इस नैतिकता में भरोसा नहीं करते हैं। पश्चिम में जब पहली बार उपनिषदों की खबर पहुंची, उन्हें भी बड़ी चिंता हुई। क्योंकि उपनिषद भी लाओत्से के ही निकट हैं। उपनिषदों में कहीं नहीं कहा गया है कि चोरी मत करो, कि हिंसा मत करो। उपनिषदों ने कोई इस तरह का उपदेश नहीं दिया है। तो पश्चिम तो ईसाइयत के टेन कमांडमेंट्स से परिचित था। व्यभिचार मत करो, चोरी मत करो, झूठ मत बोलो, ये तो धर्म के आधार हैं। और जब उपनिषद पहली दफे अनुवादित हुए, या लाओत्से का ताओ तेह किंग पहली दफे अनुवादित हुआ, तो पश्चिम के लोगों ने कहा, ये पुरब के लोग तो अनैतिक मालूम होते हैं। ये इनके महर्षि हैं! इसमें एक भी शब्द धर्म का नहीं है। क्योंकि धर्म का मतलब यह है कि समझाओ लोगों को कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, धोखा मत दो। यह तो इनमें कहीं भी नहीं कहा गया है। ये किस तरह के धर्मशास्त्र हैं! तो पश्चिम में पहला जो संपर्क हुआ पूरब के गहन विचार का तो पश्चिम के लोगों को लगा कि ये सब अनैतिक सिद्धांत हैं। जैसेजैसे गहराई बढ़ी समझ की, और पश्चिम और निकट आया, और गहरे गया, वैसे उन्हें पता चला कि ये अनैतिक नहीं हैं। एक नई उन्हें धारणा, एक नई कैटेगरी बनानी पड़ी, अतिनैतिक की। तीन कोटियां बनानी पड़ी: अनैतिक, इम्मॉरल; नैतिक, मॉरल; और अतिनैतिक, एमॉरल या ट्रांसमॉरल। धीरे-धीरे खयाल में आया कि ये शास्त्र न तो नैतिक हैं, न अनैतिक हैं। ये नीति की बात ही नहीं करते। ये किसी और ही रहस्य की बात कर रहे हैं, जो नीति के पार चला जाता है। ये शास्त्र ही धर्मशास्त्र हैं। यह बहुत मजे की बात है, नास्तिक भी नैतिक हो सकता है। और अक्सर आस्तिक से ज्यादा नैतिक होता है। क्योंकि आस्तिक की तो नैतिकता भी एक सौदा है। वह अपनी नैतिकता से भी कुछ पाने के पीछे पड़ा है-मोक्ष मिलेगा, स्वर्ग मिलेगा, पुण्य मिलेगा, अच्छा जन्म मिलेगा-वह कुछ पाने के पीछे पड़ा है। उसकी नैतिकता एक बार्गेनिंग है। वह जानता है कि थोड़ी तकलीफ मैं उठा रहा हूं तो ज्यादा सुख पा लूंगा। लेकिन नास्तिक की नैतिकता तो शुद्ध नैतिकता है। कोई बार्गेन भी नहीं है, क्योंकि आगे कोई जन्म नहीं है। नास्तिक जान रहा है कि अच्छा भी करने वाला मर जाएगा और मिट्टी में मिल जाएगा और बुरा करने वाला भी मर जाएगा और मिट्टी में मिल जाएगा। कोई पुण्य-फल नहीं मिलने वाला है। फिर भी नास्तिक अगर नैतिक है, तो निश्चित ही उसकी नैतिकता आस्तिकता से ज्यादा मूल्य की है। उसकी नैतिकता ज्यादा शुद्ध है। उसमें कोई सौदा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं, कोई आकांक्षा नहीं, कोई पुण्य-फल का सवाल नहीं, कोई फलाकांक्षा का उपाय नहीं। क्योंकि न कोई परमात्मा है, जो फल देगा; न कोई कर्म की व्यवस्था है, जो फल देगी; न कोई भविष्य है, न कोई नया जन्म है। आखिरी है यह बात! अगर मैं झूठ बोलूं, तो भी मिट्टी में मिल जाऊंगा; सच बोलूं, तो भी मिट्टी में मिल जाऊंगा। कोई फल नहीं मिलने वाला है। और नास्तिक अगर नैतिक हो पाए, तो निश्चित ही आस्तिक से उसकी नैतिकता गहरी है। नास्तिक नैतिक हो सकता है। नास्तिक को नैतिक होने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन नास्तिक धार्मिक नहीं हो सकता है। और जो आस्तिक सिर्फ नैतिक है, वह नास्तिक से भी गया-बीता है। धार्मिक हो आस्तिक, तभी उसकी आस्तिकता का कोई मूल्य है। अन्यथा उसकी आस्तिकता नास्तिक की नैतिकता से भी नीची है। क्योंकि वह कुछ कर रहा है कुछ पाने के लिए। अगर आस्तिक को पता चल जाए कि नहीं कोई परमात्मा है, तो उसकी नैतिकता अभी डगमगा जाए। आस्तिक को पता चल जाए कि नहीं कोई पुनर्जन्म है, उसकी नैतिकता अभी डगमगा जाए। आस्तिक को पता चल जाए कि कानून बदल गया, और जो लोग सच बोलते हैं वे नर्क जाने लगे, जो लोग झूठ बोलते हैं वे स्वर्ग जाने लगे, वह अभी झूठ बोलने लगेगा। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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