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इसलिए लाओत्से कहता है, बुराई जरूर मिटानी है; लेकिन जब तक तुम भलाई को बचाना चाहते हो, तुम बुराई को न मिटा सकोगे। असाधु दुनिया से जरूर विदा करने हैं, लेकिन जब तक तुम साधु का जय-जयकार किए चले जाओगे, तब तक तुम असाधु को विदा नहीं कर सकते।
अब इसके भीतर बहुत गहरा जाल है। साधु भी इसमें ही रस लेगा कि समाज में असाधु हों। इसलिए जब समाज में ज्यादा असाधु होंगे, तो साधु में ज्यादा रौनक दिखाई पड़ेगी। क्योंकि इनकी वह निंदा कर सकेगा, इनको गाली दे सकेगा, इनको बदलने के अभियान चला सकेगा, इनको ठीक करने के लिए श्रम कर सकेगा। उसको काम मिलेगा, वह कुछ कर रहा है। लेकिन अगर एक समाज ऐसा हो कि जिसमें कोई असाधु न हो, तो साधु के नाम से जिनकी अस्मिता और अहंकार परिपुष्ट होते हैं, वे एकदम ही नपुंसक और व्यर्थ हो जाएंगे, उनको खड़े होने की जगह भी नहीं मिलेगी।
अब यह बहुत उलटा है, लेकिन और मजे का भी है कि साधु का अहंकार तभी परिपुष्ट हो सकता है, जब उसके आस-पास असाधुओं का समाज हो। यह ठीक वैसा ही है कि एक धनी आदमी को मजा तभी आ सकता है, जब आस-पास गरीबी से गरीबी में डूबे हुए लोग हों। एक बड़े महल का रस तभी है, जब चारों तरफ झोपड़े बने हों। अन्यथा महल का कोई भी रस नहीं है। महल का रस महल में नहीं है। वह जो झोपड़े में पीड़ा है, उसमें निर्भर है। और साधु का रस भी साधुता में नहीं है, वे जो असाधु चारों तरफ खड़े हैं, उनकी तुलना में जो अहंकार को बल मिलता है, उसमें है।
लाओत्से कहता है, दोनों को ही छोड़ दो; हम तो धर्म उसे कहते हैं, जहां न शुभ रह जाता, न अशुभ। इसलिए आमतौर से जो धर्म की व्याख्या की जाती है: शुभ धर्म है! लाओत्से कहेगा, नहीं। मंगल धर्म है! लाओत्से कहेगा, नहीं। सत्य धर्म है! लाओत्से कहेगा, नहीं। क्योंकि जहां सत्य है, वहां असत्य उपस्थित हो गया। और जहां शुभ है, वहां अशुभ ने पैर रख दिए। और जहां मंगल है, वहां अमंगल मौजूद रहेगा। लाओत्से कहता है, जहां दोनों नहीं हैं, वंद्व जहां नहीं है, जहां चित्त निर्दवंद्व है, जहां चित्त अद्वैत में है, जहां इंच भर फासला पैदा नहीं हुआ, वहां धर्म है। तो धर्म लाओत्से के लिए वंद्वातीत है, ट्रांसेनडेंटल है, पार। जहां न अंधेरा है, न उजाला है। अगर लाओत्से से हम कहें कि परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है, तो वह इनकार करेगा। वह कहेगा, फिर अंधेरे का क्या होगा? फिर अंधेरा कहां जाएगा? फिर तुम्हारा परमात्मा सदा ही अंधेरे में घिरा रहेगा। क्योंकि जो भी प्रकाश है, वह अंधेरे में घिरा रहता है।
ध्यान रखना, जो भी प्रकाश है, वह अंधेरे में घिरा रहता है। अंधेरे के बिना प्रकाश नहीं हो सकता। इसलिए प्रकाश की एक छोटी सी बाती जलाओ, और अंधेरे का एक सागर चारों तरफ उसे घेरे रहता है। उसके बीच में ही वह प्रकाश की बाती जलती है। अगर चारों तरफ से अंधेरा हट जाए, तो प्रकाश की बाती तत्काल खो जाएगी, दीन-हीन हो जाएगी, वह कहीं नहीं रह जाएगी।
लाओत्से कहेगा, नहीं, परमात्मा प्रकाश नहीं। परमात्मा तो वहां है, जहां प्रकाश और अंधकार दोनों नहीं हैं, जहां वैत और दुई नहीं हैं।
नैतिक चिंतन और धार्मिक चिंतन का यही बुनियादी फासला है। नैतिक चिंतन सदा जीवन को दो हिस्सों में बांटता है। एक को करता है निंदित, एक को देता है सम्मान। और जिसको सम्मान देता है, उसको बढ़ावा देता है, पुरस्कार देता है। जिसकी निंदा करता है, उसको अपमानित करता है, उसको दीन करता है।
पर आपने कभी सोचा कि इस पूरी की पूरी स्ट्रेटेजी में राज क्या है? इस नीतिशास्त्र की सारी की सारी व्यवस्था में राज क्या है? सीक्रेट क्या है?
सीक्रेट है अहंकार। हम कहते हैं, चोर बुरा है, निंदित है, अपमानित है। तो हम लोगों के अहंकार को यह कहते हैं कि अगर तुम चोरी करते हुए पकड़े गए तो तुम्हारी बड़ी अप्रतिष्ठा होगी, अपमान पाओगे, दो कौड़ी के रह जाओगे। लोग तुम्हें बुरी दृष्टि से देखेंगे। अगर चोरी न करोगे, तो सम्मान पाओगे। लोग फूलमालाएं पहनाएंगे और रथयात्राएं निकालेंगे। लोग सम्मान करेंगे, तुम्हारे नाम की प्रतिष्ठा होगी, तुम यश पाओगे; इस लोक में ही नहीं, परलोक में भी यश पाओगे, स्वर्ग के दावेदार बनोगे। और अगर बुरा किया, तो नर्क में सड़ोगे, पाप और ग्लानि में। पर हम कर क्या रहे हैं? अगर इन दोनों के बीच हम देखें, तो हम कर क्या रहे हैं?
बुरे आदमी के अहंकार को हम चोट पहुंचा रहे हैं और भले आदमी के अहंकार की हम पूर्ति कर रहे हैं। और हम सब को यही सिखा रहे हैं कि अपने अहंकार की पूर्ति चाहते हो तो अच्छे बनो। अगर बुरे बने तो अहंकार को नुकसान पहुंचेगा। नीतिशास्त्र का सारा ढांचा अहंकार पर खड़ा हुआ है। और बड़े मजे की बात यह है कि हमें यह कभी खयाल में नहीं आता कि अहंकार के ढांचे पर नीतिशास्त्र खड़ा कैसे हो सकता है? अहंकार से ज्यादा अनैतिक और क्या होगा? लेकिन सारी व्यवस्था नीति की अहंकार पर खड़ी है।
लाओत्से जब यह कह रहा है, तो वह अहंकार के पूरे ढांचे को गिरा रहा है। वह कह रहा है कि हम शुभ-अशुभ को स्वीकार नहीं करते, हम पाप-पुण्य को स्वीकार नहीं करते। हम तो वह चित्त-दशा चाहते हैं, जहां द्वैत का भाव ही नहीं है। लेकिन वहां अहंकार का भी भाव नहीं रह जाएगा।
धर्म निरहंकार स्थिति है, और नीति अहंकार पर ही खड़ी हुई व्यवस्था है।
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