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बहुत संभावना तो यह है कि बाप जब बेटे से पहली बार कहता है कि सत्य बोलना धर्म है, तब बेटे को पता भी नहीं होता कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। जब पहली बार बाप अपने बेटे से कहता है, झूठ बोलना पाप है, तब तक बेटे को पता भी नहीं होता कि झूठ क्या है। और बाप का यह कहना कि झूठ बोलना पाप है, बेटे में झूठ के प्रति पहले आकर्षण का जन्म होता है। अगर उसके पहले बेटे ने झूठ भी बोला है, तो झूठ जान कर नहीं बोला है। अगर उसके पहले बेटे ने झूठ भी बोला है, तो झूठ जान कर नहीं बोला है, झूठ की कोई प्रत्यभिज्ञा नहीं है उसे। झूठ की कोई पाप की रेखा उसके मन पर नहीं खिंच सकती, जब तक प्रत्यभिज्ञा न हो। लेकिन अब, अब डिस्टिंक्शन, अब भेद शुरू होगा। अब वह जानेगा कि क्या सत्य है और क्या झूठ है। और जैसे ही वह जानेगा क्या सत्य है और क्या झूठ है, वैसे ही चित्त की सहजता नष्ट होती है और वंद्व का जन्म होता है।
लेकिन हम सब तरफ द्वंद्व निर्मित कर लेते हैं। और हम खयाल भी नहीं कर पाते, हम सोचते हैं, भले के लिए ऐसा करते हैं।
लाओत्से बहुत क्रांतिकारी है इस दृष्टि से। वह कहता है, यही है बुराई, यही है बुराई। हम जब भी बुराई को जन्म देते हैं तो भलाई के बहाने देते हैं। असल में, बुराई को सीधा जन्म दिया नहीं जा सकता। जब भी हम बुराई को जन्म देते हैं, भलाई के बहाने देते हैं। हम भलाई को ही बनाने जाते हैं और बुराई निर्मित होती है। बुराई को कोई सीधा निर्मित नहीं करता।
एक आदिवासी है, आदिम है, जंगल में रहता है। उसे हमारे जैसा सौंदर्य का बोध नहीं है। उसे हमारे जैसा कुरूपता का भी बोध नहीं है। उसे यह भेद ही नहीं है। वह प्रेम कर पाता है; कुरूप और सौंदर्य को बीच में लाने की उसे जरूरत नहीं पड़ती। हम जिसे कुरूप कहेंगे, वह उसे भी प्रेम कर पाता है। हम जिसे संदर कहेंगे, वह उसे भी प्रेम कर पाता है। उसका प्रेम कोई सीमा नहीं बांधता। सुंदर को ही प्रेम मिलेगा, ऐसा नहीं; कुरूप को नहीं मिलेगा, ऐसा नहीं। वह सब को प्रेम कर पाता है। सुंदर और कुरूप की धारणा विकसित नहीं है।
हम धारणा विकसित करते हैं। हम सुंदर और कुरूप को अलग करते हैं। और तब बड़े मजे की बात है कि हम सुंदर को भी प्रेम नहीं कर पाते हैं। जो बड़े मजे की बात है वह यह है कि बिना धारणा के वह आदिम आदमी कुरूप को भी प्रेम कर पाता है, जिसे हम कुरूप कहें। लेकिन हम धारणा को विकसित करके सुंदर को भी प्रेम नहीं कर पाते हैं। पहले हम सोचते हैं कि सुंदर को हम प्रेम कर पाएंगे, इसलिए हम कुरूप को अलग करते हैं और सुंदर को अलग करते हैं। फिर सुंदर को भी हम प्रेम नहीं कर पाते हैं। क्योंकि वंद्व से भरा हुआ चित्त प्रेम करने में असमर्थ है। और सुंदर और कुरूप का द्वंद्व है। और जिसे आपने सुंदर कहा है, वह कितनी देर सुंदर रहेगा?
यह बहुत मजे की बात है कि जिसको आपने कुरूप कहा है, वह सदा के लिए कुरूप हो जाएगा। और जिसको आपने सुंदर कहा है, वह दो दिन बाद सुंदर नहीं रह जाएगा। हाथ में क्या पड़ेगा? यह कभी आपने खयाल किया? जिसको आपने कुरूप कहा है, वह स्थायी हो गया उसका। उसकी कुरूपता सदा के लिए तय हो गई। लेकिन जिसको आपने सुंदर कहा है, दो दिन बाद उसे आप सुंदर न कह पाएंगे। उसका सौंदर्य खो जाएगा। तब अंततः ऐसे वंद्वग्रस्त मन के हाथ में सौंदर्य बिलकुल नहीं पड़ेगा, कुरूपता ही कुरूपता इकट्ठी हो जाएगी।
और एक आदिम चित्त है, जो भेद नहीं करता, कुरूप और सौंदर्य की कोई रेखा नहीं बांटता। हम जिसे कुरूप कहें, उसे भी प्रेम कर पाता है। और चूंकि प्रेम कर पाता है, इसलिए सभी उसके लिए सुंदर हो जाता है।
ध्यान रहे, हम उसे प्रेम करते हैं, जो सुंदर है। दो दिन बाद सौंदर्य पिघल जाएगा और बिगड़ जाएगा। परिचय से, परिचित होते ही सौंदर्य का जो अपरिचित रस था, वह खो जाएगा। सौंदर्य का जो अपरिचित आकर्षण और आमंत्रण था, वह विलीन हो जाएगा। हम उसे प्रेम करते हैं, जो संदर है। दो दिन बाद सौंदर्य खो जाएगा। फिर प्रेम कहां टिकेगा? आदिम मनुष्य प्रेम करता है, और जिसे प्रेम करता है, उसे सौंदर्य दे देता है।
भेद आप समझ लेना। हम सुंदर को प्रेम करते हैं। सुंदर दो दिन बाद खो जाएगा। प्रेम कहां टिकेगा? आदिम मनुष्य प्रेम करता है पहले, और जिसे प्रेम करता है, उसमें सौंदर्य को पाता है। और प्रेम की खूबी है, अगर वह स्वयं पर निर्भर हो तो रोज बढ़ता चला जाता है और किसी और चीज पर निर्भर हो तो रोज घटता चला जाता है। अगर मैंने इसलिए प्रेम किया कि आप सुंदर हैं, तो प्रेम रोज घटेगा। लेकिन अगर मैंने सिर्फ इसलिए प्रेम किया कि मुझे प्रेम करना है, तो आपका सौंदर्य रोज बढ़ता जाएगा। प्रेम अगर अपने पैरों पर खड़ा होता है, तो विकासमान है। और प्रेम अगर किसी के कंधे का सहारा लेता है, तो आज नहीं कल लंगड़ा होकर गिर जाएगा।
लेकिन फिर भी यह हम कह रहे हैं, इसलिए हमें सौंदर्य और कुरूप शब्द का प्रयोग करना पड़ता है। आदिम चित्त को सौंदर्य और कुरूप शब्द का कोई बोध नहीं है। करीब-करीब आदम चित्त वैसा है जैसे एक मां के दो बेटे हैं, एक जिसे लोग सुंदर कहते हैं और एक जिसे लोग सुंदर नहीं कहते हैं। लेकिन मां के लिए उनके सौंदर्य में कोई भी भेद नहीं है। एक बेटा कुरूप नहीं है, दूसरा बेटा सुंदर नहीं है। दोनों बेटे हैं, इसलिए दोनों सुंदर हैं। उनका सौंदर्य उनके बेटे होने से निकलता है। मां का प्रेम प्राथमिक है। उस प्रेम से उनका सुंदर होना निकलता है।
आदिम चित्त, जिसकी लाओत्से बात कर रहा है, सरल स्वभाव में जीने वाला चित्त, वंद्व और भेद के बाहर है।
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