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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free लाओत्से ऐसा मानता है कि बुराई और भलाई एक ही चीज के दो पहलू हैं। तुम एक को न काट पाओगे। अगर फेंको तो दोनों को फेंक दो; बचाओगे तो दोनों बच जाएंगी। अगर तुमने चाहा कि भलाई बच जाए, तो बुराई पीछे से मौजूद रहेगी। क्योंकि भलाई बुराई के बिना बच नहीं सकती। और तुमने चाहा कि हम ईमानदार को आदर दें, तो तुम तभी दे पाओगे, जब बेईमान मौजूद रहें। यह बहुत समझने जैसी बात है। सच में ही अगर कोई बेईमान न रह जाए, तो ईमानदार का कोई आदर होगा? कोई चोर न रह जाए, तो साधु की कोई प्रतिष्ठा होगी? इसका अर्थ यह हुआ कि अगर साधु को प्रतिष्ठित रहना हो, तो चोर को बनाए ही रखना पड़ेगा। और जीवन के रहस्यों में एक यही है कि साधु निरंतर चोर के खिलाफ बोल रहा है, लेकिन उसे पता नहीं है कि चोर की वजह से ही वह पहचाना जाता है। चोर की वजह से ही वह है। असाधु नहीं, तो साधु खो जाएगा। साधु का अस्तित्व असाधु के आस-पास ही हो सकता है, उसके बीच में ही हो सकता है। लाओत्से कहता है, धर्म तो तब था दुनिया में, जब साधु का पता ही नहीं चलता था। लाओत्से की बात बहुत गहरी है। वह यह कहता है, धर्म तो तब था दुनिया में, जब साधु का कोई पता ही नहीं चलता था। जब शुभ का कोई खयाल ही नहीं था कि अच्छाई क्या है। जब कोई समझाता ही नहीं था कि सत्य बोलना धर्म है। जब कोई किसी से कहता ही नहीं था कि हिंसा पाप है। जिस दिन अहिंसा को बनाओगे पुण्य, जिस दिन सत्य को कहोगे धर्म, उसी दिन उनसे विपरीत गुण अपनी पूरी सामर्थ्य से मौजूद हो जाते हैं। लाओत्से ने कनफ्यूशियस से कहा कि तुम सब भले लोग शांत हो जाओ, तुम दुनिया में भलाई की बातें बंद करो। और तुम पाओगे कि अगर तुम भलाई को बिलकुल छोड़ने में समर्थ हो, तो बुराई छूट जाएगी। लेकिन कनफ्यूशियस नहीं समझ पाएगा। न गांधी समझ पाएंगे। न कोई और नैतिक व्यक्ति समझ पाएगा। वह कहेगा, यह तो और बुरा हो जाएगा। हम किसी तरह भलाई को समझा-बुझा कर, पकड़ कर, श्रम-चेष्टा करके, बचा कर रखते हैं। और लाओत्से यह कह रहा है कि तुम भलाई को बचाते हो, साथ ही बुराई बच जाती है। ये दोनों संयुक्त हैं। इनमें से एक को बचाना संभव नहीं है। या तो दोनों बचेंगे या दोनों हटा देने पड़ेंगे। लाओत्से कहता है, धर्म की अवस्था वह है, जहां दोनों नहीं रह जाते। इसको वह कहता था, सरल ताओ, स्वभाव का, धर्म का जगत। इसे वह कहता था, मनुष्य अगर अपने पूरे स्वभाव में आ जाए, तो न वहां बुराई है, न वहां भलाई है। वहां ऐसा मूल्यांकन नहीं है, वैल्युएशन नहीं है। वहां न निंदा है, न प्रशंसा है। वहां न कुछ सुंदर है, न कुछ कुरूप है। वहां चीजें जैसी हैं वैसी हैं। इसलिए अक्सर ऐसा होता है, जो व्यक्ति जितना सौंदर्य के बोध से भर जाता है, उतनी कुरूपता उसे पीड़ित करने लगती है। क्योंकि संवेदनशीलता एक साथ ही बढ़ती है। मैंने कहा कि ऐसा होना सुंदर है, तो उससे विपरीत सब कुरूप हो जाएगा। मैंने जरा सा भी तय किया एक पक्ष में कि दूसरे पक्ष में भी उतना ही तय हो जाता है। तो लाओत्से कहता है, व्हेन दि पीपल ऑफ दि अर्थ आल नो ब्यूटी ऐज ब्यूटी, जब पृथ्वी के लोग पहचानने लगते हैं कि सौंदर्य यह रहा, यह है सौंदर्य, जब वे सौंदर्य को सौंदर्य कहने लगते हैं, देयर एराइजेज दि रिकग्नीशन ऑफ अग्लीनेस, उसी क्षण वह जो कुरूप है, वह जो विरूप है, उसकी प्रत्यभिज्ञा शुरू हो जाती है, उसकी पहचान शुरू हो जाती है। व्हेन दि पीपुल ऑफ दि अर्थ आल नो दि गुड ऐज गुड, और जब शुभ को शुभ पहचानने लगते हैं पृथ्वी के लोग, देयर एराइजेज दि रिकग्नीशन ऑफ ईविल, वहीं अशुभ की पहचान शुरू हो जाती है। बड़ा कठिन सूत्र है। इसका अर्थ यह है कि अगर पृथ्वी पर हम चाहते हैं कि सौंदर्य हो, तो सौंदर्य को सौंदर्य की तरह पहचानना उचित नहीं है। पहचानना ही उचित नहीं है, क्योंकि पहचानने में कुरूप के मूल्य का उपयोग करना पड़ता है। अगर कोई आपसे पूछे, सौंदर्य क्या है? तो आप यही कहेंगे न कि जो कुरूप नहीं है। सौंदर्य को पहचानने में बिना कुरूप के कोई उपाय नहीं है। अगर कोई आपसे पूछे कि साधु कौन है? तो आप यहीं कहेंगे न कि जो असाधु नहीं है। साधु को पहचानने में असाधु को परिभाषा के भीतर लाना पड़ता है। और सौंदर्य की पहचान में कुरूपता की सीमा-रेखा बनानी पड़ती है। तो लाओत्से कहता है, सौंदर्य को सौंदर्य की तरह जब नहीं पहचाना जाता-सौंदर्य तो होता ही है, लेकिन जब उसे कोई पहचानता नहींजब कोई उस पर लेबल नहीं लगाता, नाम नहीं देता कि यह रहा सौंदर्य, जब सौंदर्य अनाम है, तब कुरूपता पैदा नहीं होती। और जब कोई शुभ को शुभ का नाम नहीं देता, शुभ को कोई सम्मान नहीं मिलता, शुभ को कोई आदर नहीं देता, शुभ को कोई पहचानता भी नहीं, तब अशुभ का कोई उपाय नहीं है। वंद्व के बाहर भी एक शुभ है, द्वंद्व के बाहर भी एक सौंदर्य है। पर उस सौंदर्य को सौंदर्य नहीं कहा जा सकता, और उस शुभ को शुभ नहीं कहा जा सकता। उसे कुछ कहने का उपाय नहीं है। उस संबंध में मौन ही रह जाना एकमात्र उपाय है। लाओत्से ने कहा, कनफ्यूशियस वापस जाओ! और तुम नैतिक लोग ही इस जगत को विकृत करने वाले हो। यू आर दि मिस्चीफ मेकर्स। तुम जाओ। तुम कृपा करो, किसी को शुभ बनाने की तुम कोशिश मत करो। क्योंकि तुम्हारे शुभ बनाने की कोशिश से लोग सिर्फ अशुभ में उतरेंगे। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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