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एक आवाज जोर से आ रही है, तो हम कहते हैं स्थूल। और बहुत बारीक और धीमी आ रही है, तो हम कहते हैं सूक्ष्म। इनमें कोई फर्क नहीं है। ये एक ही आवाज की तारतम्यताएं हैं। और दोनों को कान पकड़ लेता है। और कान अगर न भी पकड़ सके, रेडियो पकड़ ले, तो भी सूक्ष्म नहीं है, वह स्थूल है। उसका मतलब यह हुआ कि थोड़ा बड़ा कान पकड़ लेता है। छोटा कान नहीं पकड़ता, थोड़ा बड़ा कान पकड़ लेता है।
अभी यहां से चित्र गुजर रहे हैं। टेलीविजन पकड़ लेता है; हम, हमारी आंख नहीं पकड़ पाती। लेकिन वह भी सूक्ष्म नहीं है। क्योंकि टेलीविजन तो बहुत स्थूल चीज है। हमसे जरा आंख उसकी तेज है। रेडियो का कान हमसे ज्यादा तेज है। मात्रा का फर्क है।
इसलिए जो चीज भी इंद्रियों की पकड़ में आती है-या एक नई बात और उसमें जोड़ दूं, जो पुराने ऋषियों ने नहीं जोड़ी है, क्योंकि उनको पता नहीं था-जो बात इंद्रियों की पकड़ में आती है वह, और या इंद्रियों के द्वारा बनाए गए किसी भी यंत्र की पकड़ में आती है वह, वह सब स्थूल है। क्योंकि इंद्रियों से जो यंत्र बनते हैं, वे सूक्ष्म को नहीं पकड़ पाएंगे। इंद्रियों के बनाए हुए यंत्र इंद्रियों के एक्सटेनशंस हैं, और कुछ नहीं। हमारी दूरबीन क्या है? हमारी आंख का फैलाव है। हमारा राडार क्या है? हमारी आंख का फैलाव है। हमारी बंदूक क्या है? हाथ से पत्थर फेंक कर मार सकते थे, उसका बढ़ाव है। हम अपनी इंद्रियों को बढ़ाने में लगे हैं। हमारा छुरा, हमारी तलवार क्या है? हमारे नाखून हैं बढ़े हुए। जंगली जानवर नाखून से आदमी की छाती फाड़ता है, हम एक लोहे का पंजा बना कर छाती फाड़ देते हैं। हमारी सब इंद्रियों के बढ़ाव जो हैं, एक्सटेनशंस जो हैं, उनकी पकड़ में जो आ जाए, वह भी स्थूल है।
सक्ष्म वह है, जो इंद्रियों की पकड़ में ही न आए, और फिर भी पकड़ में आए। ध्यान रखें, अगर पकड़ में ही न आए, तब तो आपको उसका पता ही न चले। इसलिए दूसरी बात भी खयाल रख लें। पकड़ में तो आए जरूर, लेकिन किसी इंद्रिय के द्वारा पकड़ में न आए। इमीजिएट हो, कोई मीडिएटर बीच में न हो। कोई मध्यस्थ इंद्रिय का बीच में न हो। मैं आपको देख लूं बिना आंख के, मैं आपको सुन लूं बिना कान के, मैं आपको छू लूं बिना हाथ के, तो सूक्ष्म-तो सूक्ष्म। न हाथ है बीच में, न कोई यंत्र है बीच में; कोई है ही नहीं बीच में। बीच में कोई नहीं है, सीधी मेरी चेतना अनुभव को उपलब्ध हो, तो वह अनुभव सूक्ष्म है।
लाओत्से कहता है, जिस व्यक्ति का रहस्य-बोध सघन हो जाता है, वह सूक्ष्म का द्वार खोल लेता है।
रहस्य-बोध के सघन होने से, अहंकार के गिरते ही, हमें इंद्रियों की जरूरत नहीं रह जाती। यह बहुत मजे की बात है। अहंकार के गिरते ही हमें इंद्रियों की जरूरत नहीं रह जाती। असल में, अहंकार ही है जो इंद्रियों के द्वारा काम करता है। अगर अहंकार गिर जाए, इंद्रियों की कोई जरूरत नहीं रह जाती। और बिना इंद्रियों के, नॉन-सेंसरी अनुभव शुरू हो जाते हैं। और जब बिना इंद्रियों के कोई अनुभव होते हैं, तो उनका नाम सूक्ष्म है।
ऐसे अनुभव कभी-कभी आपको भी झलक जाते हैं। कभी-कभी किसी क्षण में, किसी अवसर पर, किसी स्थिति में आपका अहंकार विरल होता है, तो ऐसे अनुभव आपको झलक जाते हैं-अनायास। पर अहंकार सघन हो जाता है पुनः, अनुभव खो जाता है। और फिर आप कितना ही समझने की कोशिश करें, आप उसको न समझ पाएंगे। अहंकार उसे न समझ पाएगा। आपने ऐसी आवाजें सुनी हैं, जिनको आपने बाद में स्वयं झुठलाया और कहा कि नहीं, मैंने नहीं सुना होगा। क्योंकि मैं कैसे सुन सकता था? वहां कोई मौजूद ही न था! आपने ऐसे क्षणों में कभी कुछ ऐसे रूप देखे हैं, जिनको आपने ही बाद में इनकार किया और कहा कि मैं कैसे देख सकता था? वहां तो कोई भी मौजूद न था! आप ऐसी संभावनाओं के निकट आ गए हैं बहुत बार-अनायास-जिनको बाद में आप खुद भी विश्वास नहीं कर पाते हैं। क्योंकि आपका अहंकार जब सघन होता है, वह कहता है, यह हो कैसे सकता है? बिना इंद्रियों के हो कैसे सकता है?
एक मेरे मित्र; उनके पिता गुजर गए हैं। पर जिस दिन उनके पिता गुजरे, मित्र कवि हैं, सांझ को वे कोई सांझ की छह बजे की बस से दूसरे गांव गए हैं। पिता ठीक थे, भले थे, कोई बात न थी। दूसरे गांव वे जा रहे थे एक कवि सम्मेलन में भाग लेने। तो रास्ते में बस में बैठे हए वे अपने काव्य के जगत में, अपनी कविता के बनाने में डबे रहे।
अब जब कोई काव्य में डूबता है, तो अहंकार विरल हो जाता है। क्योंकि वह बच्चा हो जाता है, वह फिर पुरानी दुनिया में रिग्रेस कर जाता है। तितलियों में उड़ता है, फूलों में हंसता है, पक्षियों से बोलता है। वह नीचे उतर जाता है। झरने बात करने लगते हैं, वृक्ष चर्चा उठाने लगते हैं, आकाश के बादलों में संदेश होने लगते हैं। वह अहंकार विरल हो जाता है।
तो वे अपने काव्य में डूबे हुए जाते थे। अचानक नौ बजे रात उन्हें बस में ही बैठे-बैठे एकदम उदासी पकड़ गई। उनकी समझ के बाहर था। एकदम प्रफुल्लित थे, प्रसन्न थे, गीत उतरते थे। क्या हुआ? एकदम चारों तरफ जैसे उदासी आ गई। जैसे कोई काला बादल आकर ऊपर बैठ जाए। कोई कारण न था, अकारण था। इसलिए और बेचैनी हुई। काव्य की धारा टूट गई और मन बड़ी गहन चिंता में और विषाद में डूब गया। वे तीन घंटे, बारह बजे जब दूसरे गांव पहुंचे, तब तक वैसी हालत रही। जाकर सो गए, लेकिन नींद न आए।
रात के दो बजे किसी ने द्वार पर दस्तक दी और आवाज आई, मुन्ना! बहुत हैरान हुए, क्योंकि मुन्ना उनके पिता ही कहते हैं उन्हें। दरवाजा खोला बाहर जाकर। भरोसा तो नहीं आया। पिता के होने का कोई सवाल नहीं। दूसरा कोई जीवित आदमी मुन्ना अब उनसे कहता नहीं है। दरवाजा खोल कर देखा, हवा सांय-सांय करके भीतर भर गई। रात अंधेरी है, कहीं कोई आदमी नहीं है। जिस होटल में
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