________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
ऋषि बहुत और बात है। वह फिर से पाया गया बचपन है, चाइल्डहुड रिगेन्ड। बचपन नहीं है वह। वह समस्त प्रौढ़ता और समस्त ज्ञान के बाद पाई गई फिर से सरलता है, फिर से इनोसेंस है, फिर से वही निर्दोष भाव है।
इसलिए संत में भी बच्चों जैसे भाव दिखाई पड़ सकते हैं, लेकिन संत में कवि जैसी अनैतिकता नहीं दिखाई पड़ सकती। संत में बच्चे जैसी सरलता और निर्दोषता दिखाई पड़ेगी, लेकिन कवि जैसी उच्छृखलता नहीं दिखाई पड़ सकती। उसकी निर्दोषता में भी, उसकी परम स्वतंत्रता में भी एक व्यवस्था और एक नियम और एक अनुशासन होगा। उसकी स्वच्छंदता में भी एक आत्मानुशासन होगा। उसके सारे बच्चे जैसे व्यवहार के भीतर भी परम अनुभव की धारा होगी। और फिर भी वह ज्ञान और अनुभव के बाहर गया, फिर भी वह ज्ञान से भी ऊपर उठा है।
लाओत्से कहता है, रहस्य कहते हैं हम इसे। और इस रहस्य से, इस रहस्य की अगर सघनता बढ़ जाए, तो वह जीवन का जो सूक्ष्म राज है, वह जो चमत्कारपूर्ण जीवन का द्वार है, वह खुलता है।
सघन होगा तब, जब अहंकार होगा विरल। यह प्रपोर्सनेट होगा सदा। इसे हम ऐसा मान सकते हैं, सौ प्रतिशत अहंकार, तो शून्य प्रतिशत रहस्य का भाव। नब्बे प्रतिशत अहंकार, तो दस प्रतिशत रहस्य का भाव। दस प्रतिशत अहंकार, तो नब्बे प्रतिशत रहस्य का भाव। शून्य प्रतिशत अहंकार, तो सौ प्रतिशत रहस्य का भाव। यह बिलकुल यह शक्ति एक ही है। जो अहंकार में पड़ती है, वह वही शक्ति है, जो रहस्य में पड़ेगी। इसलिए अहंकार जितना मुक्त होगा, उस शक्ति को छोड़ेगा, उतना वह शक्ति रहस्य में प्रवेश कर जाएगी।
जीवन-ऊर्जा की दो वैकल्पिक दिशाएं हैं: अस्मिता और रहस्य। मैं और तू। वह तू जो है परमात्मा, वह रहस्य है। इधर मैं मजबूत होता है, तो तू क्षीण होता चला जाता है।
हमारी सदी ने अकारण ही ईश्वर को इनकार नहीं किया है। हमारी सदी पृथ्वी पर सबसे ज्यादा अहंकारी सदी है। और मजा यह है कि अहंकार ज्ञान का है। होगा ही; ज्ञान का ही अहंकार होता है। हमारी सदी सबसे ज्यादा ज्ञानपूर्ण सदी है। यह उलटी बात लगेगी, लेकिन अगर आपने मेरी पिछली पूरी बात ठीक से खयाल में ली है, तो समझ में आ जाएगी।
हमारी सदी मनुष्य-जाति के ज्ञात इतिहास में सर्वाधिक ज्ञानपूर्ण है। और परिणामतः सर्वाधिक अहंकारी है। और अंततः सर्वाधिक रहस्य से वंचित है। जितना हम ज्ञानपूर्ण होते चले जाएंगे, जितनी हमारी लाइब्रेरीज बड़ी होती चली जाएंगी, हमारी यूनिवर्सिटीज ज्ञान की थाती बनती चली जाएंगी, हमारे बच्चे ज्ञान के जानकार होते चले जाएंगे, उतना रहस्य तिरोहित होता चला जाएगा। और ऐसी घड़ी आ सकती है और वही आदमी की आखिरी सुसाइडल घड़ी होती है-जब कोई सभ्यता इतनी ज्ञानी हो जाती है कि उसको रहस्य का कोई बोध न रह जाए, तो सिवाय मरने के फिर कोई उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि जीया जाता है रहस्य से, अहंकार से नहीं। हम भी, जो अहंकारी हैं, वे भी रहस्य से ही जीते हैं। पूर्ण अहंकार के साथ जीना असंभव है; सिर्फ मृत्यु ही संभव है, आत्मघात ही संभव है। अगर सब हमने जान लिया, ऐसा खयाल आ जाए, तो मरने के सिवाय और कुछ जानने को शेष नहीं रह जाएगा।
इसलिए जितना हम पीछे लौटते हैं, उतना हम आदमी को जीवन के प्रति ज्यादा रसमय पाते हैं। आत्महत्या उतनी कम होती है, जितना हम पीछे लौटते हैं। यह बड़े मजे की बात है, अज्ञानी सभ्यताएं आत्महत्याएं नहीं करती हैं। क्योंकि आत्महत्या होने के लिए जितना सघन अहंकार चाहिए, वह उनके पास नहीं होता। मरने के लिए बहुत प्रगाढ़ मैं चाहिए; इतना मजबूत मैं चाहिए कि जीवन के समस्त रहस्य को इनकार करके हत्या में उतर जाए। स्वयं को समाप्त करने के लिए बड़ी मजबूत अस्मिता चाहिए। स्वयं की गरदन काटने के लिए बहुत सघन अहंकार चाहिए। इसलिए जितनी पुरानी सभ्यता, अज्ञानी, आदि, आदिम, उतनी आत्महत्या नहीं। आदिवासी आत्महत्या को जानते ही नहीं। अपरिचित हैं, और सोच ही नहीं पाते। ऐसी बहुत सी भाषाएं हैं आज भी पृथ्वी पर, जिनमें आत्महत्या के लिए कोई शब्द नहीं है। क्योंकि उन्होंने कभी सोचा ही नहीं कि कोई अपने को किसलिए मारेगा!
पर हमारे लिए स्थिति बिलकुल बदल गई है।
अलबर्ट कामू ने अपनी एक किताब का प्रारंभ किया है और कहा है, दि ओनली फिलासॉफिकल प्राब्लम इज़ सुसाइड-एकमात्र दार्शनिक समस्या है और वह है आत्मघात।
कोई आदमी एक दर्शन-ग्रंथ की शुरुआत ऐसी करेगा! और अलबर्ट कामू समझदार लोगों में एक था आज के युग के। नहीं, ईश्वर की चर्चा नहीं की है काम ने अपनी किताब में, कि दर्शन की समस्या ईश्वर है। चर्चा की है कि दर्शन की एकमात्र समस्या आत्मघात है, कि आदमी जीए तो क्यों जीए?
ठीक है उसका पूछना। अगर रहस्य न हो, तो जीने का कारण क्या है? खाना खाने के लिए जीए? मकान में रहने के लिए जीए? बच्चे पैदा करने के लिए जीए? फिर बच्चे किसलिए जीएं? वे और बच्चे पैदा करने के लिए जीएं? इस सबका क्या प्रयोजन है? मकान बनाए, रास्ते बनाए, हवाई जहाज बनाए-पर जीए क्यों?
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज