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रहस्य कितना सघन है। इसलिए समस्त रहस्यवादी कहते हैं, मैं को विसर्जित करो; मैं को खो दो; तब तुम्हें जीवन का रहस्य पता चलेगा।
यह मैं क्यों बाधा देता है? यह मैं अंधा कर देता है, रहस्य को नहीं देखने देता। रहस्य का मतलब ही यह है कि मेरा कोई वश न चलेगा, मैं जान न पाऊंगा। मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है, मैं असहाय हूं। तभी रहस्य का बोध होगा।
इसलिए छोटे बच्चे जितने रहस्य से घिरे रहते हैं, बूढ़े नहीं घिरे रहते। छोटे बच्चे रहस्य के जगत में जीते हैं। क्यों? अभी मैं उतना सघन नहीं है। अभी तितली उड़ती है, तो ऐसा लगता है कि परम स्वप्न पूरा हुआ। अभी फूल खिलता है, तो ऐसा लगता है कि अनंत के द्वार खुले। अभी सूरज निकलता है, तो ऐसा लगता है कि बस परम प्रकाश का दर्शन हुआ। अभी सागर की लहर टकराती है, तो हृदय में आनंद की पुलक नाच जाती है। अभी राह के किनारे पड़े हुए कंकड़-पत्थर रंगीन भी बच्चा उठा लाता है, तो उनमें हीरे और मोती उसे दिखाई पड़ते हैं। अभी मैं बहुत सघन नहीं है। अभी चारों तरफ रहस्य का दर्शन होता है।
तो बच्चे का तो पूरा समय एक काव्य में बीतता है, एक कविता में। इसलिए छोटे बच्चे सपने में और जागने में फर्क नहीं कर पाते। छोटा बच्चा सुबह उठ कर रात सपने में खो गई गुड़िया के लिए सुबह रो सकता है, चिल्ला सकता है कि गुड़िया टूट गई, गई कहां!
और हम उसे कितना ही समझाएं कि वह सपना था, हम न समझा पाते हैं। उसका कारण है कि अभी सपने में और जागने में कोई बहुत स्पष्ट भेद-रेखा नहीं है। अभी वह दिन में भी सपने देखता है। अभी रात और दिन में बहुत फासला नहीं है, पलक खुलने और बंद होने का ही फासला है। भीतर अभी बहत तरल है। अभी रहस्य का भाव बहत मजबूत है।
फिर जैसे-जैसे मैं मजबत होगा, वैसे-वैसे रहस्य विलीन होता जाएगा। जितना बच्चा शिक्षित होगा, सर्टिफिकेट लाएगा, जितना बड़ा होगा, जितना अपने पैरों पर खड़ा होगा, जितनी-जितनी योग्यता अर्जित करेगा, उतना मैं धीरे-धीरे साफ होगा, निखरेगा, उतना रहस्य गिरता चला जाएगा।
लेकिन बच्चे का जो रहस्य है, वह अज्ञान से संबंधित रहस्य है। संत का जो रहस्य है, वह ज्ञान के बाद का रहस्य है। ज्ञान के पहले भी एक रहस्य है, वह अज्ञान का है। ज्ञान के बाद भी एक रहस्य है, वह अज्ञान का नहीं है।
यही फर्क है कवि में और ऋषि में। कवि भी रहस्य में जीता है, लेकिन अज्ञान से भरे। और ऋषि भी काव्य में जीता है, लेकिन ज्ञान के पार जो काव्य है। ऋषि का अर्थ कवि ही होता है। लेकिन ऐसा कवि, जिसके पास आंखें हैं, जिसने देखा। ऋषि भी काव्य में ही जीता है। उसके लिए भी जगत प्रोज नहीं, पोएट्री है। उसके लिए जगत गद्य नहीं है, रूखा-सूखा नहीं है। उसके लिए जगत पद्यमय है, गीत में बंधा है, छंद से आविष्ट है, नृत्य से, गीत से आच्छादित है। लेकिन ऋषि, ज्ञान के बाद जो रहस्य आता है, उसका कवि है। और कवि, ज्ञान के पहले जो रहस्य होता है अज्ञान का, उसका ऋषि है। इतना ही उन दोनों में फर्क है।
इसलिए हम उपनिषद के ऋषियों को मात्र कवि नहीं कह सकते। यद्यपि उन जैसा काव्य कम ही पैदा हुआ है। और हम अपने श्रेष्ठतम कवि को भी ऋषि नहीं कह सकते, क्योंकि उसका काव्य केवल अज्ञान का काव्य है। हमारा कवि असल में ऐसा बच्चा है, जो बच्चा ही रह गया। जिसका शरीर तो बढ़ता चला गया, लेकिन जिसके भीतर के सपने और बाहर की दुनिया में भेद-रेखा निर्मित न हुई। बाल-सुलभ है! इसलिए कवि अगर बच्चों जैसे काम करते दिखाई पड़ जाएं, तो बहुत हैरानी की बात नहीं। इसलिए कवियों का व्यवहार अप्रौढ़, इम्मैच्योर मालूम पड़ता है। और कई बार हम समझ नहीं पाते। और इसलिए कवियों का बहुत सा व्यवहार अनैतिक मालूम पड़ता है।
अब पिकासो एक स्त्री को प्रेम करता है। करता है, करता है, बिलकुल पागल है। ऐसा प्रेम कम ही लोग करते हैं, जैसा पिकासो कर सकता है। लेकिन बस एक दिन प्रेम उजड़ गया। और वह दूसरी स्त्री को वैसा ही प्रेम करने लगा, जैसा इसको करता था। चारों तरफ की दुनिया को यह अनैतिक लगेगा। लेकिन कुल मामला इतना है कि पिकासो बिलकुल बाल-सुलभ है।
जैसे एक बच्चा एक गुड़िया को प्रेम कर रहा था; कर रहा था, तो छाती से लगाए फिर रहा था। फिर एक दिन ऊब गया, तो उसने उसे टिका कर एक कोने में रख दिया। अब वह लौट कर भी नहीं देखता। बच्चे को हम अनैतिक न कहेंगे, क्योंकि हम मान कर चलते हैं, वह बच्चा है। पिकासो को हम अनैतिक कहेंगे कि कैसा प्रेम है? यह धोखा है। यद्यपि पिकासो धोखा नहीं दिया। जब उसने प्रेम किया है, तो उतना ही किया है, जैसे बच्चा गुड़िया को छाती से लगा कर चलता था, रात छोड़ता नहीं था। इतना ही प्रेम किया है, सघन प्रेम किया है। लेकिन जब चला गया तो चला गया। वह बच्चे जैसा हट गया। अब वह किसी दूसरे को कर रहा है। अनैतिक लगेगा।
केवल सच पूछा जाए, तो कवि, चित्रकार, संगीतज्ञ उनके भीतर जो अनैतिकता हमें दिखाई पड़ती है, उसका मूल कारण कुल इतना ही होता है कि उनका शरीर तो प्रौढ़ हो गया होता है, लेकिन उनका बचपन गया नहीं होता है। भीतर गहरे में वे बच्चे जैसे रह जाते हैं। इसीलिए वे काव्य लिख पाते हैं। लेकिन इसीलिए वे जीवन में उपद्रव हो जाते हैं। इसीलिए वे सुंदर चित्र बना पाते हैं, लेकिन जीवन उनका कुरूप हो जाता है। इसीलिए वे गीत अच्छा गा पाते हैं, लेकिन जीवन के संबंध में उन जैसा अनगढ़ कोई भी नहीं होता।
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