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तीन सीढ़ियां समझ लें। एक अज्ञान की सीढ़ी है। अगर आप अज्ञान से बढ़ेंगे, तो दूसरी सीढ़ी ज्ञान की है। न जानने से जानने की दुनिया शुरू होती है। लेकिन अगर आप न जानने में रुक गए, तो अज्ञानी रह जाएंगे; और अगर आप जानने में रुक गए, तो ज्ञानी रह जाएंगे; अगर आप जानने के भी ऊपर उठे, तो रहस्य की दुनिया शुरू होती है। और तब उस अवस्था में ज्ञान होते हुए भी अज्ञान का पूर्ण बोध होता है। ज्ञान और अज्ञान रहस्य में एक ही हो जाते हैं। जैसा लाओत्से कह रहा है कि वे दोनों पहलुओं के भीतर एक ही है। रहस्य का अनुभव उसे होता है, जिसे अज्ञान में भी और ज्ञान में भी एक के ही दर्शन होने लगते हैं। और जिसे लगता है कि अज्ञानी और ज्ञानी में बहुत फासला नहीं है। अज्ञानी को भ्रम है कि मुझे पता नहीं। ज्ञानी को भ्रम है कि मुझे पता है। रहस्यवादी को पता है कि पता होने की कोई संभावना नहीं है।
नहीं, रहस्यवादी यह नहीं कहता है कि जानो मत। वह कहता है, जानो, खूब जानो; लेकिन इतना गहरा जानो कि तुम जानने के भी पार निकल जाओ। वह जानना तुम्हारा बंधन और तुम्हारी सीमा न बन जाए। अज्ञान से तो ऊपर उठ गए हो, ज्ञान के भी ऊपर उठ जाओ।
ईशावास्य के ऋषि ने कहा है, अज्ञानी तो भटक ही जाते हैं अंधकार में, लेकिन उन ज्ञानियों का क्या कहें जो महा अंधकार में भटक जाते हैं!
कौन से ज्ञानी होंगे जो महा अंधकार में भटक जाते हैं? हमने तो यही सुना है कि ज्ञानी नहीं भटकते, अज्ञानी भटकते हैं। यह ईशावास्य का ऋषि क्या कह रहा है? जरूर इसे वही बात पता है जो लाओत्से को पता है। यह कह रहा है कि अज्ञानी तो भटकते हैं इस कारण कि उन्हें पता नहीं है। और ज्ञानी इसलिए भटक जाते हैं कि वे सोचते हैं कि उन्हें पता है। और ध्यान रहे, ऋषि कहता है, अज्ञानी तो अंधकार में भटकते हैं, ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। उसकी विनम्रता भी खो जाती है, और अहंकार सघन हो जाता
रहस्य, ज्ञान और अज्ञान, दोनों का अतिक्रमण है। रहस्य इस बात की खबर है कि नहीं, जानो बहुत, जान नहीं पाओगे। जानने की कोशिश करो बहुत, कोशिश असफल होगी। दौड़ो, खोजो, आविष्कार करो, लेकिन आखिर में एक ही बात आविष्कार कर पाओगे कि जीवन अतल रहस्य है, उसका तल नहीं खोजा जा सकता है।
लाओत्से कहता है, इसे हम रहस्य कहते हैं। दोनों के भीतर यथार्थ में एक है, इसे हम रहस्य कहते हैं। जन्म और मृत्यु में एक है, अंधेरे और प्रकाश में एक है, इसे हम रहस्य कहते हैं।
और इसके बाद की पंक्ति उसकी बहुत अदभुत है।
“इन नामों के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं। और जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि है, वहीं उस सूक्ष्म और चमत्कारी का प्रवेशद्वार है।
जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि है! रहस्य की सघनता! क्या अर्थ होगा रहस्य की सघनता का? पीछे लौट कर चलना पड़े।
अज्ञानी को पता होता है कि मुझे पता नहीं है। अहंकार सूक्ष्म होता है, निर्बल होता है। होता है, क्योंकि इतना तो उसे भी खयाल है कि मुझे पता नहीं है। ज्ञानी को पता होता है कि मुझे पता है। मैं और मजबूत हो गया होता है, सघन हो गया होता है।
अज्ञानी के मन में थोड़ा-बहुत रहस्य का भाव भी होता है अज्ञान के कारण। उसे बहुत वंडर्स दिखाई पड़ते हैं, चारों तरफ विचित्रताएं दिखाई पड़ती हैं, क्योंकि वह कुछ नहीं समझ पाता। आकाश में बिजली चमकती है, तो वह सोचता है, शायद इंद्र नाराज हैं। वर्षा होती है, तो सोचता है, शायद देवता प्रसन्न हैं। फसल आती है, तो सोचता है, पुण्य का फल है। फसल नहीं आती, भूकंप आ जाता है, तो सोचता है, पापों का परिणाम है। वह अपने कुछ हिसाब लगाए चला जाता है। पर रहस्य होता है, अज्ञान-निर्भर होता है। मैं होता है कम सघन, रहस्य की प्रतीति थोड़ी होती है। लेकिन रहस्य को भी अज्ञान शीघ्रता से कुछ न कुछ व्याख्याओं में परिवर्तित कर लेता है। बिजली इंद्र बन जाती है, वर्षा पाप-पुण्य का फल बन जाती है। सुख-दुख न्याय, कर्म के सिद्धांत बन जाते हैं। कुछ न कुछ व्याख्या निर्मित कर लेता है अज्ञानी भी। जिस मात्रा में व्याख्या कर लेता है, उसी मात्रा में अहंकार मजबूत हो जाता है।
ज्ञानी जानता है तथ्यों को। जितना जानता है, उतना मजबूती से मैं मजबूत होता है। और जितनी मजबूती से मैं मजबूत होता है, उतना ही रहस्य का भाव विरल हो जाता है। सघन नहीं, विरल हो जाता है। रहस्य के भाव की सघनता विलीन हो जाती है।
तीसरे चरण में, जहां ज्ञानी न ज्ञानी रह जाता न अज्ञानी, जानता है और फिर भी जानता है कि नहीं जानता हूं, वहां मैं बिलकुल खो जाता है। और जहां खोता है मैं, वहां रहस्य सघन होता है। ये दो चीजें हैं: मैं और रहस्य। अगर मैं बहुत सघन होगा, तो रहस्य विरल होगा। अगर मैं विरल होगा, तो रहस्य सघन होगा। अगर मैं पूरी तरह से मजबूत हो जाए, तो रहस्य बिलकुल समाप्त हो जाएगा। और अगर मैं बिलकुल शून्य हो जाए, तो रहस्य परिपूर्ण रूप से सघन और तीव्र हो जाएगा। मैं के केंद्र की ही मात्रा पर तय करेगा कि
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