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पर लाओत्से कहता है, फिर भी वह जो एक में है, वही अनेक में भी है। और वह जो बीज में है, वही पत्ते में भी है। दूसरा हो कैसे सकता है? दूसरे के होने का कोई उपाय नहीं है। दूसरा है ही नहीं।
इस वचन के दूसरे हिस्से में: ज्यों-ज्यों प्रगति होती है, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं।
वह भिन्न-भिन्न नहीं हो जाता, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं। मैंने कहा कि वृक्ष बीज में एक होता है, शाखाओं में अनेक हो जाता है। लेकिन वह भी, हम जो बाहर खड़े हैं, उनको दिखाई पड़ता है। अगर वृक्ष कह सके, तो वृक्ष कहेगा, मैं एक हूं। वृक्ष को अपना पत्ता भी और अपनी जड़ भी जुड़ी हई मालूम पड़ेगी। भीतर तो एक ही प्रवाह है, एक ही रस की धार बहती है।
आपको अपने पैर का अंगूठा और आपका सिर, आपकी आंख और आपके हाथ की अंगुलियां भीतर से अलग-अलग मालूम होती हैं? आंख बंद करके देखेंगे, तो भीतर एक का ही सतत प्रवाह हो जाता है। उस प्रवाह में ही ये सारे के सारे रूप तिरोहित हो जाते हैं।
बाहर से कोई आपको देखेगा, तो आपकी आंख अलग है, अंगुली अलग है। निश्चित ही, अंगुली तोड़ने से आंख नहीं फूटेगी। और निश्चित ही, आंख फूट जाने से अंगुली नहीं टूट जाएगी। बाहर से सब अनेक ही मालूम पड़ता है। लेकिन भीतर? मैंने कहा कि अंगुली तोड़ने से आंख नहीं फूटेगी, यह भी बाहर से। भीतर तो अंगुली का टूटना भी आंख को कमजोर कर जाता है। भीतर तो आंख का भी फूटना अंगुली को भी अंधा कर जाता है। भीतर तो एक ही है प्रवाह। भीतर तो जरा भी भेद नहीं है।
और अगर हम शरीरशास्त्री से पूछे, तो वह भी यही कहता है। बहुत अनूठी बात शरीरशास्त्री कहता है। नवीन से नवीन खोजें कुछ बड़े पुराने रहस्यों को पुनर्स्थापित करती हैं। शरीरशास्त्री कहता है कि आंख जिन सेल्स से बनी है, उन्हीं सेल्स से पैर का अंगूठा भी बना है। उनमें जरा भी भेद नहीं है। अगर भेद है कुछ, तो वह सिर्फ उन सेल्स ने स्पेशियलाइजेशन कर लिया है। सारे शरीर के कोश एक जैसे हैं। लेकिन शरीर के कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है देखने के लिए। और कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है सुनने के लिए। और कुछ कोशों ने विशेषज्ञता प्राप्त कर ली है स्पर्श करने के लिए। लेकिन वे सब कोश एक जैसे हैं। उन कोशों के जीवनत्तत्व में कोई भी भेद नहीं है। रंच मात्र भी फर्क नहीं है। आंख की जो इतनी सूक्ष्म पुतली है, वह भी आपकी चमड़ी ही है। वह भी चमड़ी ही है, जो बहुत सूक्ष्मतम रूप में देखने का काम उसने शुरू कर दिया है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि हाथ की चमड़ी भी देखने में उतनी ही समर्थ है। अगर उसका भी प्रशिक्षण हो सके, तो वह भी देख सकती है। क्योंकि दोनों को निर्मित करने वाला जो कोश है, वह एक जैसा है। उसमें कोई फर्क नहीं है।
जब बच्चा मां के पेट में आता है, तो न तो आंख होती है, न कान होते हैं, न नाक होती है, न हाथ, न पैर होते हैं। जब पहले दिन बीजारोपण होता है, तो कुछ भी नहीं होता। सिर्फ सेल होता है खाली। फिर उसी सेल से सेल पैदा होते हैं। और वे सारे सेल जिस सेल से पैदा होते हैं, उससे भिन्न नहीं हो सकते, वही होते हैं। फिर धीरे-धीरे कुछ सेल आंख का काम शुरू कर देते हैं, कुछ सेल कान का काम शुरू कर देते हैं, कुछ सेल हृदय बन जाते हैं। एक ही तरह के सेल फैलते चले जाते हैं। और शरीर में सारा का सारा भेद निर्मित हो जाता है।
बीज एक होता है, शाखाएं अलग-अलग मालूम पड़ने लगती हैं। रस-धार एक होती है, जीवन-धार एक होती है, पर प्रत्येक चीज अलग दिखाई पड़ने लगती है-अनफोल्डमेंट पर, जब चीजें खुलती हैं। मां के पेट में जो सेल पहले दिन निर्मित हुआ है, वह बंद है। वह अभी खुलेगा, उघड़ेगा, अपने पर्दे तोड़ेगा, फैलेगा। फैलेगा तो बहुत जरूरतें होंगी। प्रत्येक जरूरत के अनुसार बहुत से हिस्से उसके अलग-अलग काम करना शुरू कर देंगे। और जब ये सब अलग-अलग काम करना शुरू कर देंगे, तो इनके अलग-अलग नाम होंगे।
इसे हम एक उदाहरण समझ सकते हैं। हिंदू सदा कहते रहे हैं कि यह जगत भी इसी तरह एक छोटे से अंडे से निर्मित होता है, जैसे व्यक्ति। और इस जगत का भी सब कुछ जीवन-धार एक ही है। फिर सब चीजें अलग होती हैं; जैसे खुलती जाती हैं, फैलती चली जाती हैं। और लाओत्से भी वही कह रहा है। वह कह रहा है, लोग भिन्न-भिन्न नामों से पुकारने लगते हैं। उपनिषदों ने कहा है, सत्य तो एक है, पर जानने वाले उसे अनेक तरह से जानते हैं। रहस्य तो एक है, लेकिन बुद्धिमानों ने उसे अलग-अलग नामों से पुकारा है। नाम ही अलग-अलग हो पाते हैं। पर नाम के कारण हमारे मन में ऐसी भ्रांति बननी शुरू होती है कि चीजें अलग-अलग हैं। तब गलती हो जाती है, तब भ्रांति हो जाती है। वह भांति टूट जाए, तो अद्वैत का स्मरण हमें हो सकता है।
और लाओत्से कहता है कि जिसे ऐसे अद्वैत का स्मरण हो, वही...| लोग जिसे भिन्न-भिन्न नामों से स्मरण करते हैं, और फिर भी जो एक है। इन नामों के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं-दि मिस्ट्री!
रहस्य क्या है इस जगत का?
विज्ञान रहस्य को स्वीकार नहीं करता, धर्म रहस्य को स्वीकार करता है। वही फर्क है विज्ञान और धर्म में। विज्ञान मानता है, जगत में कोई भी रहस्य नहीं है। और जितना हम जान लेंगे, उतना ही रहस्य कम हो जाएगा। अर्थात रहस्य अज्ञान का नाम है। विज्ञान के हिसाब से रहस्य का अर्थ है अज्ञान। जिसे हम नहीं जानते, वह रहस्य मालूम पड़ता है। जान लेंगे, रहस्य समाप्त हो जाएगा। और जानने के लिए विज्ञान क्या करता है? अगर ठीक से समझें, तो लाओत्से जो कह रहा है, ठीक उससे विपरीत करता है। विज्ञान करता
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