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इसलिए इमेनुअल कांट, एक जर्मन चिंतक, कहा करता था कि वस्तु जैसी अपने आप में है- थिंग इन इटसेल्फ - उसे कभी नहीं जाना जा सकता। जब भी हम जानेंगे, तो हम उसे ऐसा जानेंगे, जैसा हम जान सकते हैं।
असल में, जो भी हम जानते हैं, वह हमारे जान सकने की क्षमता से निर्भर होता है, निर्मित होता है। जरूरी नहीं है कि हम इतने लोग इस कमरे में बैठे हुए हैं, इसमें एक मकड़ी भी चलती होगी, एक छिपकली भी दीवार पर सरकती होगी, एक मक्खी भी गुजरती होगी, एक कीड़ा भी सरकता होगा; वे सभी इस कमरे को एक जैसा नहीं देखेंगे। हो सकता है, कुछ चीजें छिपकली को दिखाई पड़ती हों, जो हमें कभी भी दिखाई न पड़ेंगी। और हो सकता है, मकड़ी कुछ चीजों को अनुभव करती हो, जिसका अनुभव हमें कभी न होगा। और हो सकता है, जमीन पर सरकने वाला कीड़ा कुछ ऐसी ध्वनियां सुनता हो, जो हमें बिलकुल सुनाई नहीं पड़ रही हैं। और यह तो बिलकुल ही निश्चित है कि जो हम देख रहे हैं, जान रहे हैं, सुन रहे हैं, उनसे ये कोई भी प्राणी परिचित न हो पाते होंगे।
जो भी हम देखते हैं, उसमें देखने वाला जुड़ जाता है। बुद्धि जैसे ही कुछ देखती है, बुद्धि अपना पैटर्न, अपना ढांचा दे देती है। बुद्धि का सबसे गहरा जो ढांचा है, वह द्वैत का है। वह चीजों को दो हिस्सों में तोड़ देती है सबसे पहले विपरीत को अलग कर देती है, कंट्राडिक्टरी को अलग कर देती है।
और प्रत्येक चीज कंट्राडिक्टरी से निर्मित है। मैं कहता हूं कि मैं क्रोध नहीं करता, सिर्फ क्षमा करता हूं। लेकिन बिना क्रोध के कोई क्षमा नहीं होती। या हो सकती है? अगर आप क्रोधित नहीं हुए हैं, तो क्षमा कर सकेंगे? क्षमा करने के लिए पहले क्रोधित हो जाना बिलकुल जरूरी है। क्षमा क्रोध के पीछे ही आती है; क्रोध का ही हिस्सा होकर आती है। क्रोध के बिना क्षमा संभव नहीं है। पर हम क्रोध और क्षमा को अलग करके देखते हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी क्रोधी है और फलां आदमी क्षमावान है। और हम कभी ऐसा नहीं देख पाएंगे कि क्रोध ही क्षमा है।
बुद्धि तोड़ती है। जीवन के सब तलों पर बुद्धि तोड़ती चली जाती है।
लाओत्से कहता है कि बुद्धि के ये सारे के सारे खंडों के भीतर वह एक ही छिपा है। हम उसे कितना ही तोड़ें, हम उसे तोड़ नहीं पाते हैं। वह एक ही बना रहता है। हम कितनी ही सीमाएं बनाएं, वह असीम असीम ही बना रहता है। हम नाम दें या न दें, वह एक ही है।
तो पहली तो बात लाओत्से कहता है कि इस समस्त द्वैत के भीतर, इन सब दो के भीतर उस एक का ही वास है।
बैठे हैं इस कमरे के भीतर; हमने दीवारें बना ली हैं; तो हमने कमरे के आकाश को अलग तोड़ लिया है बाहर के आकाश से। लेकिन कभी आपने सोचा है कि आकाश को आप तोड़ कैसे सकेंगे? तलवार आकाश को काट नहीं सकती। दीवार आकाश को काट नहीं सकती, क्योंकि दीवार को ही आकाश में ही होना पड़ता है। और आकाश दीवार के पोर पोर में समाया हुआ है। तो जो बाहर का आकाश है और जो भीतर का आकाश है, वह जो हमारा विभाजन है, वह विभाजन वस्तुतः कहीं नहीं है। पर हमारे काम चलाने के लिए पर्याप्त है। बाहर के आकाश में सोना मुश्किल हो जाएगा; दीवार के भीतर के आकाश में हम सुविधा से सो जाते हैं। निश्चित ही, भेद तो है। बाहर के आकाश में पानी बरस रहा है; भीतर के आकाश में हम पानी से निश्चिंत बैठे हैं।
पर फिर भी हमने आकाश को दो हिस्सों में बांटा नहीं है। हम कभी बांट नहीं पाएंगे। आकाश अखंड है, एक है। भीतर और बाहर हमारे कामचलाऊ फर्क हैं। जो भीतर है, वही बाहर है। जो बाहर है, वही भीतर है। भीतर और बाहर शब्द भी हमारे बुद्धि के द्वैत से निर्मित होते हैं। अन्यथा न कुछ भीतर है, न कुछ बाहर है। एक ही है। उसे हम कभी भीतर कहते हैं, उसे हम कभी बाहर कहते हैं।
लाओत्से, बुद्धि का जो द्वैत है वह अत्यंत ऊपरी है, यह कह रहा है। भीतर, अंतर- सत्ता में, अस्तित्व की गहराई में, एक का ही वास है। जैसे कोई वृक्ष निकलता है जमीन से, तो पहले एक ही होता है। फिर शीघ्र ही उसमें शाखाएं टूटने लगती हैं। और फिर शाखाएं टूटती चली जाती हैं। इसलिए लाओत्से कहता है, जैसे ही प्रगति होती है, जैसे ही विकास होता है, वैसे ही अनेक पैदा हो जाता है। अनंत नाम आ जाते हैं।
हिंदुओं ने जीवन को एक वृक्ष के रूप में कोई पांच हजार साल पहले से सोचा है। और मोक्ष को एक उलटे वृक्ष के रूप में सोचा है। संसार ऐसा वृक्ष है, जो एक से पैदा होता और अनेक हो जाता है। एक वृक्ष की शाखा उठनी शुरू होती है, पींड़ उसे हम कहते हैं, और फिर अनेक शाखाएं हो जाती हैं। और फिर प्रत्येक शाखा अनेक शाखा बन जाती है। और फिर प्रत्येक अनेक शाखा भी अनेक पत्तों में फैल जाती है। मोक्ष इससे उलटा वृक्ष है, जिसमें अनेक शाखाओं से हम कम शाखाओं की तरफ आते हैं। फिर कम शाखाओं से और कम शाखाओं की तरफ आते हैं। फिर और कम शाखाओं से एक की तरफ आते हैं। और फिर एक से हम उस बीज में चले जाते हैं, जिससे सब निर्मित होता है और विकसित होता है।
लाओत्से कह रहा है, जैसे ही डेवलपमेंट होता है, जैसे ही अनफोल्डमेंट होता है, जैसे ही चीजें खुलती हैं, वैसे ही अनेक हो जाती हैं। एक बीज तो एक होता है, वृक्ष अनेक-अनेक शाखाओं में बंट जाता है। और फिर अनेक शाखाओं पर अनेक अनेक बीज लग जाते हैं - एक ही बीज से ठीक वैसे ही अस्तित्व तो एक है, अनाम, फिर नाम की बहुत शाखाएं उसमें निकलती हैं। सत्य तो एक है, निःशब्द, फिर शब्द की बहुत शाखाएं उसमें निकलती हैं, बहुत पत्ते लगते हैं।
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