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________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free समझनी। लेकिन यह और भी गहरी बात है; जो लाओत्से ने पहले कहा, उससे भी गहरा है यह। नाम के भीतर भी वही है, आकार के भीतर भी वही है। मैं अपने मकान की खिड़की से झांक कर देखता है, तो आकाश मुझे आकार में दिखाई पड़ता है। पर जिस आकाश को मैं खिड़की के भीतर से देखता हूं आकार में बंधा हुआ, जब बाहर जाऊंगा खिड़की-द्वार के, तो वही निराकार दिखाई पड़ेगा। उस समय मैं क्या कहूंगा, खिड़की से जो आकाश दिखा था, वह दूसरा था? निश्चित ही, भेद तो है। क्योंकि खिड़की से जब दिखा था, तो आकार के चौखटे में जड़ा हुआ दिखा था। और अब जब देखता हूं, तो कोई भी चौखटा, कोई भी आकार नहीं है। निश्चित ही, भेद तो है। लेकिन गहरे में भेद कहां है? खिड़की से इसे ही देखा था, जो निराकार है। और अगर भूल थी तो आकाश की न थी, खिड़की की थी। और खिड़की आकाश को आकार कैसे दे सकेगी? खिड़की जैसी छोटी चीज अगर आकाश जैसे विराट तत्व को आकार देने में समर्थ हो जाए, तो आकाश से ज्यादा शक्तिशाली हो जाती है। तो जिसे बुद्धि ने नाम देकर जाना है, वह भी वही है, जिसे बुद्धिमानों ने बुद्धि के पार जाकर अनाम जाना है। और लाओत्से कहता है, चल कर वहां तक न पहुंच सकोगे, रुक कर पहुंचोगे। हालांकि रुक कर आदमी वहीं पहुंचता है, जहां चलता हुआ दौड़ता रहता है। उन दोनों में भेद नहीं है, उन दोनों में अंतर नहीं है। द्वैत को बड़ी गहरी चोट इस छोटे से वचन में लाओत्से ने की है-आखिरी चोट; जिसमें विपरीत को समाहित करने की कोशिश की है। और इसे एकबारगी बहुत साफ खयाल में आ जाना चाहिए कि सारे द्वैत बुद्धि-निर्मित हैं। अस्तित्व उनसे अपरिचित है। अस्तित्व ने द्वैत को कभी जाना नहीं, डुआलिज्म को कभी जाना नहीं। विपरीत से विपरीत चीज अस्तित्व में जुड़ी और संयुक्त है। जुड़ी और संयुक्त ही नहीं, एक ही है। जुड़ी और संयुक्त भी हमें कहना पड़ती है, क्योंकि हमारा मन दो में तोड़ कर ही देखता है। एक सिक्के में हम दो पहलू देखते हैं। और साफ ही दो पहलू होते हैं। फिर भी क्या हम कह सकते हैं कि एक पहलू को दूसरे से अलग किया जा सकेगा? क्या हम सिक्के के एक पहलू को बचा कर दूसरे को फेंक सकते हैं? हम कुछ भी करें, सिक्के में दो पहलू ही रहेंगे, और हम एक को न बचा सकेंगे और एक को हम न हटा सकेंगे। जिसे हम दूसरा पहलू कहते हैं, वह वही सिक्का है। फिर भी मजे की बात है कि हम एक छोटे से सिक्के के दोनों पहलू भी एक साथ देख नहीं सकते। सिक्का बड़ी चीज नहीं है, उसे हम हाथ पर रख कर देख लें। पर जब भी हम सिक्के को देखते हैं, हमारी आंखें एक ही पहलू को देख पाती हैं। दूसरा पहलू तो सिर्फ कल्पना में होता है कि होगा। उलटा कर जब देखते हैं, तब दूसरा देखते हैं, तब पहला छिप जाता है। कौन कहेगा...। बर्कले पश्चिम में एक विचारक हआ और कीमती विचारक हआ। वह कहा करता था कि जब आप कमरे के बाहर जाते हैं, तो कमरे की चीजें शून्य में विलीन हो जाती हैं। आप जब कमरे के भीतर आते हैं, तब वे फिर पुनः प्रकट हो जाती हैं। लेकिन जब कमरे में कोई नहीं रहता, तो कमरे में कोई वस्तु नहीं रह जाती। और बर्कले कहता था कि अगर कोई इससे विपरीत सिद्ध कर दे, तो मैं तैयार हूं। पर विपरीत सिद्ध करना असंभव है। क्योंकि सिद्ध करने के लिए कमरे के भीतर रहना पड़ेगा। और बर्कले कहता ही इतना था कि जब तक कोई कमरे के भीतर है, वस्तुएं होती हैं। जब कमरे के भीतर कोई देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं तिरोहित हो जाती हैं। क्योंकि वह कहता था, बिना देखने वाले के दृश्य बचेगा कैसे? बिना द्रष्टा के दृश्य बचेगा कैसे? अगर आप एक छेद करके दीवार से झांकें, तो द्रष्टा मौजूद हो जाता है, वस्तुएं प्रकट हो जाती हैं। बर्कले जो कह रहा था, वह यह कह रहा था कि द्रष्टा और दृश्य में गहरा संबंध है। निश्चित ही, यह बात तो सही नहीं है बर्कले की कि जब कोई देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं नहीं रह जाती हैं। लेकिन यह बात जरूर सच है कि जब देखने वाला नहीं होता, तो वस्तुएं वैसी ही नहीं रह जाती, जैसा देखने वाले के होने पर होती हैं। जैसे, अब तो फिजिक्स भी इसे स्वीकार करती है कि जब आप कमरे के बाहर चले जाते हैं, तो कमरे की वस्तुएं रंग खो देती हैं, कमरे की वस्तुओं में कोई रंग नहीं रह जाता। रह ही नहीं सकता। जब आप कमरे के बाहर होते हैं और कमरा सब तरफ से बंद होता है और कोई देखने वाला नहीं होता, तो कमरे की वस्तुएं बेरंग, कलरलेस हो जाती हैं। निश्चित ही, अगर वस्तुएं रंगहीन हो जाती हैं, तो आपके कमरे में जो पेंटिंग टंगी है, वह क्या होती होगी? कम से कम पेंटिंग नहीं होती होगी। रंगहीन इसलिए हो जाती हैं कि फिजिक्स कहती है कि रंग आंख के जोड़ से निर्मित होता है। अगर मैं देख रहा हूं कि आप सफेद कपड़े पहने हुए बैठे हैं, तो आपके सफेद कपड़े आपके सफेद कपड़ों पर ही निर्भर नहीं हैं; मेरी आंख उनको सफेद देखती है। अगर कोई आंख न हो इस कमरे में, तो कपड़े सफेद नहीं रह जाएंगे। रंग जो है, वह आंख से जुड़ा हुआ है। और जरूरी नहीं है कि आकार भी वैसा ही रह जाए, जैसा हम देखते हैं, क्योंकि आकार भी हमारी आंख से जुड़ा है। अगर वस्तु रह भी जाती होगी कमरे के भीतर, जब हम बाहर हो जाते हैं, तो ठीक वैसी ही नहीं रह जाती है, जैसी हम थे तब थी। और जैसी रह जाती है, उसे हम कभी न जान पाएंगे। क्योंकि जब भी हम आएंगे, तब वह वैसी न रह जाएगी। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
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