________________
Download More Osho Books in Hindi
Download Hindi PDF Books For Free
ताओ उपनिषाद (भाग-1) प्रवचन-4
अज्ञान और ज्ञान के पार-वह रहस्य भरा ताओ-चौथा प्रवचन
अध्याय 1: सूत्र 4 इन दोनों पक्षों में यह एक ही है; किंतु ज्यों-ज्यों इसकी प्रगति होती है, लोग इसे भिन्न-भिन्न नामों से संबोधित करते हैं। इन नामों
के समूह को ही हम रहस्य कहते हैं। जहां रहस्य की सघनता सर्वोपरि हो, वहीं उस सूक्ष्म और चमत्कारी का प्रवेश-द्वार है। दोके भीतर एक का ही निवास है। जहां-जहां दो दिखाई पड़ता है बुद्धि को, वहां-वहां अस्तित्व तो एक ही है। ऐसा कहें, बुद्धि का देखने का ढंग चीजों को दो में तोड़ लेने का है। जैसे ही बुद्धि किसी चीज को देखने जाती है, वैसे ही दो में तोड़े बिना नहीं रह सकती। उसके कुछ कारण हैं। बुद्धि असंगत को अस्वीकार करती है। बुद्धि विपरीत को साथ नहीं रख पाती; बुद्धि विरोधी को तोड़ देती है। जैसे, बुद्धि देखने जाएगी जीवन को, तो मृत्यु को जीवन के भीतर देखना बुद्धि के लिए असंभव है। क्योंकि मृत्यु बिलकुल ही उलटी मालूम पड़ती है। जीवन के तर्क के साथ उसकी कोई संगति नहीं है। ऐसा लगता है कि मृत्यु जीवन का अंत है। ऐसा लगता है, मृत्यु जीवन की शत्रु है। ऐसा लगता है, मृत्यु जीवन के बाहर, जीवन पर आक्रमण है। लेकिन वस्तुतः ऐसा नहीं है; मृत्यु जीवन के बाहर घटने वाली घटना नहीं। मृत्यु जीवन के भीतर ही घटती है, मृत्यु जीवन का ही हिस्सा है, मृत्यु जीवन की ही पूर्णता है। मृत्यु और जीवन ऐसे ही हैं, जैसे बाहर आने वाली श्वास और भीतर जाने वाली श्वास एक ही हैं। जो श्वास भीतर जाती है, वही बाहर जाती है। जन्म में जो श्वास भीतर आती है, मृत्यु में वही श्वास बाहर जाती है। अस्तित्व में मृत्यु और जीवन एक ही हैं। लेकिन बुद्धि जब सोचने चलती है, तो बुद्धि असंगत को स्वीकार नहीं कर पाती; संगत को स्वीकार कर पाती है। संगत की दृष्टि से जीवन अलग हो जाता है और मृत्य् अलग हो जाती है।
लेकिन अस्तित्व असंगत को भी स्वीकार करता है, विपरीत को, विरोधी को भी स्वीकार करता है। अस्तित्व को बाधा नहीं पड़ती फूल और कांटे को एक ही शाखा पर लगा देने में। अस्तित्व को कोई अड़चन नहीं है अंधेरे और प्रकाश को एक ही साथ चलाए रखने में। सच तो यह है कि अंधेरा प्रकाश का ही धीमा रूप है. और प्रकाश अंधकार की ही कम सघन स्थिति है। अगर हम प्रकाश को मिटा दें जगत से बिलकुल, तो तत्काल बुद्धि कहेगी, अंधेरा ही अंधेरा बच रहेगा। लेकिन अगर हम सच में ही जगत से प्रकाश को बिलकुल मिटा दें. तो अंधेरा भी नहीं बच रहेगा।
और सरलता से समझें तो खयाल में आ जाए। अगर हम जगत से गर्मी को बिलकुल मिटा दें, तो बुद्धि कहेगी, ठंड ही ठंड बच रहेगी। लेकिन जिसे हम शीत कहते हैं, ठंड कहते हैं, वह गर्मी का रूप है। अगर हम गर्मी को पूरा मिटा दें जगत से, तो शीत बिलकुल मिट जाएगी; वह कहीं भी नहीं बच रहेगी। अगर हम मृत्यु को बिलकुल मिटा सकें जगत से, तो जीवन समाप्त हो जाएगा। अस्तित्व विपरीत के साथ है। बुद्धि विपरीत को बाहर कर देती है। बुद्धि बहुत छोटी चीज है; अस्तित्व बहुत बड़ा। बुद्धि की समझ के बाहर पड़ता है यह कि विपरीत भी एक हो, कि जीवन और मृत्यु एक हो, कि प्रेम और घृणा एक हो, कि अंधेरा और प्रकाश एक हो, कि नर्क और स्वर्ग एक हो। यह बुद्धि की समझ के बाहर है कि दुख और सुख एक ही चीज के दो नाम हैं। यह बुद्धि कैसे समझ पाए!
बुद्धि कहती है, सुख अलग है, दुख अलग है; सुख को पाना है, दुख से बचना है; दुख को नहीं आने देना है, सुख को निमंत्रण देना है। लेकिन अस्तित्व कहता है, जिसने बुलाया सुख को, उसने दुख को भी निमंत्रण दे दिया है। और जिसने बचना चाहा दुख से, उसे सुख को भी छोड़ना पड़ा है। अस्तित्व में विपरीत एक है।
और लाओत्से कहता है, अंडर दीज ट्र आसपेक्ट्स, इट इज़ रियली दि सेम। वह जो नाम के भीतर है और वह जो अनाम के भीतर है, इन दो पहलुओं में वह एक ही है।
इतनी तीव्रता से लाओत्से ने कहा कि वह जो पथ है, विचरण उस पर नहीं किया जा सकता; और वह जो सत्य है, उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। और अब लाओत्से कहता है, वह जो नाम के अंतर्गत है वह, और वह जो अनाम के अंतर्गत है वह, वे दोनों एक ही हैं-रियली दि सेम। यथार्थ में, वस्तुतः वे दोनों एक ही हैं।
यह भी हमारी बुद्धि का ही वैत है कि हम कहें, यह अनाम का जगत है और यह नाम का, कि हम कहें कि यह वस्तुओं का जगत है और वह अस्तित्व का, कि हम कहें कि यह व्यक्तियों का जगत है और वह अव्यक्ति का, कि हम कहें कि यह आकार का जगत है और वह निराकार का।
लाओत्से कहता है, नहीं, वस्तुतः उन दोनों के भीतर भी वह एक ही है। जिसे हम नाम देते हैं, उसके भीतर भी अनाम बैठा है; और जिसे हम अनाम कहते हैं, उसे भी हमने नाम तो दे ही दिया है। इससे क्या भेद पड़ता है कि हम उसे अनाम कहते हैं? वी हैव नेम्ड इट! अनाम रख लिया है उसका नाम हमने।
यह थोड़ा कठिन मालूम पड़ेगा, क्योंकि लाओत्से ने बहुत जोर दिया है शुरू में कि दोनों बिलकुल अलग हैं। नाम मत देना उसे; नाम दिया कि वह सत्य न रह जाएगा। बोलना मत उसे; बोले कि वह विकृत हो जाएगा। चलना मत उस पथ पर, क्योंकि वह अविकारी पथ चला नहीं जा सकता। और अब लाओत्से घड़ी भर बाद यह कहता है कि उन दोनों के भीतर वस्तुतः एक ही है। कठिन पड़ेगी बात
इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं -देखें आखिरी पेज