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रिएक्शन को, किसी प्रतिक्रिया को जन्म नहीं दे पाते। ये पत्थर फेंकने वाला बचकाना है। महावीर इस पर दया से भरे हैं, पूरी करुणा से, कि कैसा पागल है, व्यर्थ मेहनत उठा रहा है।
हम दो में से एक काम कर सकते हैं: या तो पत्थर का जवाब पत्थर से दें और या भाग खड़े हों। हमें दो के अतिरिक्त तीसरा विकल्प नहीं दिखाई पड़ता। महावीर का विकल्प तीसरा है। न तो वे भागते हैं, न वे पत्थर का जवाब पत्थर से देते हैं। वे पत्थर को लेते ही नहीं। पत्थर उनके भीतर किसी तरह का कोई व्यवधान पैदा नहीं कर पाता। और इससे वे बड़े लाभ में रहते हैं, हानि में नहीं रहते। इससे वे अपनी परम शांति, अपने परम आनंद में प्रतिष्ठित रहते हैं। वे उससे इंच भर यहां-वहां नहीं होते।
समस्त धर्म महापराक्रम से पैदा होता है, महापुरुषार्थ से; और समस्त धर्म अभय से जन्मता है, भय से नहीं। और समस्त धर्म आनंद में प्रतिष्ठा है, दुख में नहीं। दुख का सूत्र है, सुख की मांग। आनंद की प्रतिष्ठा का मार्ग है, दुख की स्वीकृति।
शेष कल। कुछ पूछते हैं?
प्रश्न:
समझ लेना, यह किस घटना का नाम है? जोभी जीवन में हो रहा है, वह दो ढंग से हो सकता है: बिना समझे, समझ कर। उदाहरण से समझें तो आसानी होगी। आपने मुझे दी गाली, मुझे आया क्रोध। क्या मेरा क्रोध आपकी गाली से एकदम पैदा हो जाता है या इन दोनों के बीच में समझने की भी कोई घटना घटती है? क्या जब आप मुझे गाली देते हैं, तो मैं समझने की कोशिश करता हूं कि मेरे भीतर आपकी गाली से क्रोध क्यों पैदा हो रहा है? क्या मैं भीतर लौट कर देखता हूं कि क्रोध पैदा होना चाहिए, नहीं होना चाहिए? क्या मैं भीतर देखता हूं कि क्रोध क्या है?
अगर यह मैं कुछ भी नहीं देखता, आपने गाली दी और मैंने क्रोध किया और इन दोनों के बीच में मेरी समझ के लिए कोई अंतराल न रहा, कोई जगह न रही; उधर गाली, इधर क्रोध; उधर दबाई बटन और मैं भभका; तो फिर मैं यंत्र की तरह व्यवहार कर रहा है। यह व्यवहार नासमझी का व्यवहार है।
अगर आपने दी गाली, मैंने समझा कि क्या उठता है मेरे भीतर, क्यों उठता है मेरे भीतर? गाली मुझे कहां छूती है? किस घाव को स्पर्श करती है? किस जगह गड़ती है? क्यों गड़ती है? गाली में ऐसा क्या है जो मुझे इतना आग से भर जाता है? गाली में ऐसा क्या है जो मुझे इतना जहरीला कर देता है? यह सब मैंने समझा और फिर देखा इस जहर को, इस उठते क्रोध को, इस आग को पहचाना कि यह क्या है, तो जो मैं करूंगा, वह समझ होगी।
और मजे की बात यह है कि क्रोध केवल नासमझी में किया जा सकता है, समझ में नहीं किया जा सकता। इसलिए अगर आपने दी गाली और मैंने की समझ की फिक्र, तो क्रोध असंभव है। आपने दी गाली और मैंने समझ की कोई चिंता न ली, तो ही क्रोध संभव है।
इसलिए लाओत्से जैसा आदमी कहेगा, क्रोध को हटाने की, उपाय की कोई भी जरूरत नहीं है। कोई विधि की जरूरत नहीं है। कोई मंत्रतंत्र की जरूरत नहीं है। कोई ताबीज बांधने की जरूरत नहीं है। कोई कसम, कोई प्रतिज्ञा, कोई व्रत लेने की जरूरत नहीं है। क्रोध को समझ लो, और क्रोध असंभव हो जाएगा।
अभी एक पश्चिमी मित्र को मैं एक ध्यान करवा रहा हूं। वे यहां मौजूद हैं। क्रोध उनकी पीड़ा है भारी। किसी पर निकलता है। तो उन्हें मैंने कहा है कि तीन दिन से वह एक तकिए को लेकर उस पर क्रोध निकालें।
पहले वे बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा, आप क्या पागलपन की बात करते हैं। तकिए पर?
मैंने कहा, तुम शुरू करो। क्योंकि जब तुम आदमी पर निकाल सकते हो, तो तकिए पर निकालने में बहुत ज्यादा पागलपन नहीं है। आदमी पर निकाल सकते हो, उसमें कभी पागलपन नहीं दिखा, तो तकिए पर निकालने में उतना पागलपन कभी भी नहीं है। कोशिश करो।
पहले दिन कोशिश की। मुझे आकर खबर दी कि पहले तो थोड़ा सा अजीब लगा कि यह मैं क्या कर रहा हूं! लेकिन पांच-सात मिनट में गति आ गई और मैंने तकिए को ठीक ऐसे मारना शुरू कर दिया जैसे वह जीवित हो। और न केवल जीवित, बल्कि थोड़ी ही देर में, मेरी जिस व्यक्ति से सर्वाधिक शत्रुता रही है, तकिया उसका ही रूप हो गया। मुझे उसकी याद आ गई, जो दस साल पुरानी है। जिसे मैंने मारना चाहा था और नहीं मारा, उसका चेहरा तकिए में मुझे दिखाई पड़ने लगा। हंसी भी आई, बेचैनी भी हुई और रस भी आया। और मारा भी।
अब वे तीन दिन से तकिए को मार रहे हैं। आज सारी रिपोर्ट दे गए हैं। वह चकित करने वाली रिपोर्ट है। वह पूरी रिपोर्ट यह है कि पहले दिन वे सब चेहरे आने शुरू हो गए, जिनको मारना चाहा और नहीं मार पाए। दूसरे दिन चेहरे खो गए, शुद्ध क्रोध रह गया।
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