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लेकिन इस स्वीकृति में अस्वीकार छिपा हुआ है। सच तो यह है कि मेरी स्वीकृति अस्वीकार का ही एक ढंग है। पीड़ा तो मुझे हो रही है, दुख मुझे हो रहा है। अब कोई उपाय नहीं दिखाई पड़ता, तो मैं आंख बंद करके कहता हूं कि ठीक है, इसमें भी कोई, परमात्मा का कोई राज होगा, कोई रहस्य होगा। अभिशाप में भी वरदान छिपा होगा। काले बादलों के भीतर भी सफेद चमकती हुई बिजली छिपी रहती है। कांटों के भीतर भी फूल रहता है। दुख में भी सुख छिपे रहते हैं। लेकिन मेरी खोज सुख की ही है, वह सफेद बिजली की रेखा के लिए ही मेरी खोज है। काले बादल की मेरी कोई स्वीकृति नहीं है। और जब रात बहुत अंधेरी हो जाती है, तो सुबह करीब होती है। मगर मेरी आकांक्षा सुबह के लिए ही है। काली रात को अपने को समझाने के लिए मैं समझा रहा हूं कि कोई हर्जा नहीं, रात बहुत काली हो गई, अब सुबह, भोर करीब होगी। लेकिन मेरी इच्छा भोर के लिए है। रात के कालेपन को, मैं भोर की इच्छा को सामने रख कर, थोड़ा हलका कर रहा हूं, संतोष कर रहा हूं।
लेकिन लाओत्से इस तथाता की बात नहीं करता। लाओत्से कहता है, इसलिए नहीं स्वीकृति कि संतोष चाहिए; बल्कि इसलिए कि अस्वीकृति मूढ़ता है। अस्वीकृति से सिवाय आदमी अपने को निरंतर नर्क में डालने के और कहीं नहीं ले जाता है। लाओत्से का जोर स्वीकृति पर कम, अस्वीकृति की समझ पर ज्यादा है। जिस दिन हम अस्वीकृति को समझ लेंगे पूरा कि मैं अपने हाथ से नर्क पैदा कर रहा हूं, उस दिन अस्वीकृति विदा हो जाएगी, और जो शेष रह जाएगी, वह स्वीकृति होगी। इस फर्क को समझ लें। एक तो ऐसी स्वीकृति है, जो अस्वीकृति के खिलाफ हम खड़ी करते हैं, इंपोज करते हैं। और एक ऐसी स्वीकृति है, जो अस्वीकृति के तिरोहित हो जाने पर पाई जाती है। इन दोनों में बड़ा फर्क है। जब अस्वीकृति भीतर होती है और स्वीकृति को हम बाहर से खड़ा करते हैं, तो वंद्व निर्मित होता है। भीतर अस्वीकार होता है, बाहर स्वीकार होता है।
मित्र मेरा चल बसा, तो मैं कहता हूं कि ठीक है, स्वीकार ही करना पड़ेगा, कोई उपाय भी नहीं है। तो अपने मन को मैं समझाता हूं कि सभी को जाना पड़ता है, मृत्यु तो सभी की होती है, मृत्यु तो होगी ही। कौन इस दुनिया में सदा रहने को आया है? यह सब मैं अपने को समझाता-बुझाता हूं। लेकिन भीतर टीस गड़ती रहती है। मित्र चला गया, उसका खालीपन अखरता रहता है। भीतर मन कहता है, बुरा हुआ, नहीं होना था। और बाहर मन को मैं समझाता हूं कि यह तो होता ही रहता है; यह तो होता ही रहा है; इससे बचा नहीं जा सकता। ये दोनों बातें साथ चलती रहती हैं। ऊपर की कोशिश से मैं मलहम-पट्टी कर रहा हूं। घाव भीतर बना ही रहता है।
लाओत्से इस तरह की स्वीकृति तथाता के लिए नहीं कह रहा है। लाओत्से कह रहा है कि मैं यह नहीं कहता कि मैं दुखी हूं मेरे मित्र के मर जाने से, मैं तो सिर्फ आश्चर्यचकित है कि इतने दिन जीए कैसे? मैं सिर्फ आश्चर्यचकित हं, इतने दिन जीए कैसे? जीवन बड़ी असंभव घटना है; मौत बड़ी सहज घटना है। मौत को आश्चर्य नहीं कहा जा सकता, जीवन आश्चर्य है। है यह आश्चर्य।
लाओत्से कहेगा, इतने दिन जीए कैसे? आश्चर्य!
च्वांगत्से का मैंने नाम लिया। च्वांगत्से की पत्नी मर गई। तो सम्राट गया सांत्वना देने, तो वह खंजड़ी बजा रहा था अपने द्वार पर बैठ कर। सुबह पत्नी को विदा किया, बारह बजे खंजड़ी बजाता था। पैर फैलाए हुए था, गीत गाता था। सम्राट थोड़ा झिझका। वह तो तैयार होकर आया था, जैसा कि जब भी कोई किसी के घर मर जाता है तो लोग तैयार होकर आते हैं-क्या कहना! क्या पूछना! सब तैयार होता है, बिलकुल रिहर्सल दो दफे घर में करके आते हैं। क्या कहेंगे; क्या उत्तर देगा; और क्या जवाब होगा। सब पक्का ही है।
और जो दो-चार अनुभवी हैं, दो-चार को विदा कर चुके हैं, वे तो बिलकुल पक्के ही हैं। उनको तो कोई जरूरत ही नहीं, उनको डायलॉग बिलकुल याद ही होता है। वह तैयार करके सम्राट आया था कि ऐसा-ऐसा दुख प्रकट करेंगे, ऐसा-ऐसा भाव बताएंगे। इधर देखा तो हालत ही उलटी थी। यहां पुराने डायलॉग का उपाय न था। वे खंजड़ी बजा रहे थे। और बड़े आनंदित थे।
सम्राट से न रहा गया। उसने कहा, च्वांगत्से, दुख न मनाओ, इतना काफी है; कम से कम खंजड़ी तो मत बजाओ। बहुत है, इतना ही बहुत है कि दुख मत मनाओ। बाकी खंजड़ी?
च्वांगत्से ने क्या कहा, पता है? च्वांगत्से ने कहा, या तो दुख मनाओ या खंजड़ी बजाओ। दो के बीच में खड़े होने की कोई जगह नहीं है। दो के बीच में खड़े होने की कोई जगह नहीं है। और दुखी मैं क्यों होऊं? परमात्मा को धन्यवाद दे रहा हूं कि इतने दिन जीवन था-आश्चर्य! उसने मेरी इतनी सेवा की-आश्चर्य! उसने मुझे इतना प्रेम दिया-आश्चर्य! और मैं उसे विदा के क्षण में अगर खंजड़ी बजा कर विदा भी न दे सकू, तो बहुत अकृतज्ञ! मैं उसे विदा दे रहा हूं। अब वह दूर, धीरे-धीरे दूर होती जाती होगी इस लोक से। मैं उसे विदा दे रहा हूं। मेरी खंजड़ी की आवाज धीमी होती जाती होगी। पर जाते क्षण में मैं उसे आनंद से विदा दे पाऊं।
हम हैं एक, साथ रह कर भी आनंद से नहीं रह पाते, हम सुखवादी हैं! च्वांगत्से है एक, मृत पत्नी को खंजड़ी बजा कर आनंद की विदा दे रहा है, वह दुखवादी है! तब फिर हमारा दुखवाद-सुखवाद बड़ा अजीब है। कौन दुखवादी है? हम दुखवादी हैं, चौबीस घंटे दुख में रहते हैं। च्वांगत्से परम सुखवादियों में एक है।
लाओत्से इसलिए नहीं कहता कि स्वीकार कर लो, किसी विवशता से, किसी हेल्पलेसनेस से। नहीं, किसी बल से, किसी शक्ति से, किसी सामर्थ्य से! स्वीकार कर लेना बड़ी सामर्थ्य है, बड़ा बल है। महावीर को कोई पत्थर मार रहा है; महावीर खड़े हैं। हमारे मन में होगा, कैसा कायर आदमी है? पत्थर का जवाब तो और बड़े पत्थर से देना चाहिए। लेकिन महावीर खड़े हैं-किसी कायरता से नहीं, किसी परम शक्ति के कारण। इतनी विराट शक्ति है भीतर कि ये पत्थर लगते नहीं, ये पत्थर चोट नहीं पहुंचा पाते। ये पत्थर भीतर किसी
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