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न, यह जो बहती हुई आनंद की सतत धारा है लाओत्से में, यह निराशा की खबर नहीं देती, हताशा की खबर नहीं देती। यह आदमी हारा हुआ नहीं है। लाओत्से तो कहता है यह कि मुझे कभी कोई हरा नहीं सका। और कोई पूछने लगा, क्यों नहीं हरा सका? तो लाओत्से ने कहा, मैंने कभी किसी को जीतना ही न चाहा। हरा तो तभी सकते हो, जब मैं किसी को जीतना चाहूं। मुझे हराओगे तो तभी, जब मैं जीतने को निकलूं। मैं किसी को जीतने न निकला।
हमें लगेगा कि शायद लाओत्से इसलिए जीतने नहीं निकला कि लड़ने से डरता है।
और लाओत्से कहता है, जीतने इसलिए न निकला कि तुम्हारी दुनिया में जीतने योग्य कुछ भी था नहीं। कुछ दिखा ही नहीं कि कुछ जीतने योग्य है। इन क्षुद्र चीजों को, जिनके लिए तुम जीतने जाते थे, इनको मैंने जीतने योग्य न समझा। और इन क्षुद्र चीजों के लिए हारने के लिए व्यर्थ का उपद्रव खड़ा करना? क्योंकि जीतने निकले कि हारोगे। जीत जाओ, तो भी कुछ नहीं मिलता। और व्यर्थ हार जाओ, तो बेचैनी और परेशानी सिर पर आ जाती है। मैं जीतने ही न गया। इसलिए नहीं कि हारने से डरता था, बल्कि इसलिए कि जीतने योग्य कुछ था नहीं।
यह जो हमें, हमारे मन में जो सवाल उठता है, बिलकुल स्वाभाविक है। हमें लगता है कि यह तो, यह तो एक पेसिमिस्ट, दुखवादी का दृष्टिकोण है। लेकिन दुखवादी को दुखी होना चाहिए न! तो बड़ी उलटी बात है कि दुखवादी दुखी नहीं मालूम पड़ता। और हम सुखवादी दुखी मालूम पड़ते हैं।
सारे पश्चिम में जब पहली दफा बुद्ध के ग्रंथों का अनुवाद हुआ, तो उन्होंने कहा, यह पेसिमिस्ट है-पार एक्सीलेंस। यह तो आखिरी दम का दुखवादी है बुद्ध। क्योंकि कहता है: जन्म दुख है, जीवन दुख है, जरा दुख है, मरण दुख है, सब दुख है। यह तो दुखवादी है। लेकिन उनमें से किसी ने न सोचा कि इसके चेहरे की तरफ तो देखो। यह दुखवादी है, तुम सुखवादी हो! तो तुम्हारे चेहरे पर सुख की कोई छाप होनी चाहिए। तुम्हारे चेहरे पर सुख का कोई इशारा नहीं दिखाई पड़ता। और यह आदमी जो कहता है, जन्म दुख है, जीवन दुख है, सब दुख है, इसके आनंद का कोई पारावार नहीं है। तो जरूर कहीं कोई भूल हो रही है।
बुद्ध कहते हैं कि जीवन दुख है, इसे जो जान ले, वही आनंद को उपलब्ध होता है। और जो समझे कि जीवन सुख है, वह सिर्फ दुख को उपलब्ध होता है। ठीक है यह गणित बुद्ध का, बहुत ही गहरा है। बुद्ध या लाओत्से कहते हैं कि जो जीवन को सुख समझ कर चलेगा, वह दुख पाएगा, क्योंकि जीवन दुख है। अगर मैं कांटे को फूल मान कर चलूंगा, तो कांटा चुभेगा और दुख पाऊंगा। क्योंकि कांटा है, फूल नहीं है। लेकिन अगर मैं कांटे को कांटा ही मान कर चलूं, तो फिर कांटा मुझे दुख नहीं दे सकता। कांटा दुख देने की तरकीब करता है, फूल जैसा दिखाई पड़ता है, तब दुख दे पाता है। बुद्ध कहते हैं, जीवन दुख है, इसे जान लो; फिर तुमसे तुम्हारे सुख को कोई न छीन सकेगा। और तुमने जीवन को सुख जाना कि तुम दुख में पड़ोगे, क्योंकि तुमने भ्रांति का सिलसिला शुरू किया।
लाओत्से दुखवादी नहीं है। लाओत्से परम आनंदवादी है-परम। आनंद की जितनी उत्कृष्ट चरमता हो सकती है, आत्यंतिकता हो सकती है, लाओत्से आत्यंतिक आनंदवादी है।
लाओत्से का एक शिष्य च्वांगत्से हुआ। च्वांगत्से को चीन के सम्राट ने निमंत्रण भेजा कि तुम आओ और मेरे बड़े वजीर बन जाओ। च्वांगत्से ने खबर भेजी, लेकिन मैं जितने सुख में हूं, उसके ऊपर कोई सुख नहीं। तो वजीर बना कर तुम मुझे नीचे ही उतार पाओगे। क्योंकि इसके आगे तो कोई आनंद है नहीं। अब तो कहीं भी बढ़ना पीछे हटना है। च्वांगत्से ने कहा, अब कहीं भी बढ़ना पीछे हटना है। अब तो इंच भर सरकना, खोना है। क्योंकि जहां मैं हूं, उससे परम कोई आनंद नहीं है।
हमको लगेगा कि वजीर होने का मौका मिलता है, पागल है। खुद सम्राट बुलाता है। नहीं तो एक-एक वोटर के पास जाना पड़ता था। पागल है बिलकुल, चुपचाप चले जाना था। ऐसा मौका नहीं खोना था। लेकिन च्वांगत्से की समझ उसे कुछ और कहती है। च्वांगत्से की समझ यह कहती है कि मैं जिस परम आनंद में हूं, वहां से जरा भी हिला, तो तुम मुझे नीचे ही उतार लोगे। इसके आगे और कोई गति नहीं है। तुम सम्हालो।
लाओत्से या च्वांगत्से या कोई और तथाता की जब बात करते हैं, एक्सेप्टबिलिटी की, कि सब कर लो स्वीकार, तो इसलिए नहीं कि किसी विषाद से, किसी फ्रस्ट्रेशन से, किसी संताप से, इसलिए नहीं कि जीवन में संतोष रखना बड़ी अच्छी बात है। इसलिए नहीं।
स्वीकार का भाव दो कारणों से हो सकता है। एक तो इसलिए आदमी स्वीकार कर ले कि अब कोई उपाय नहीं है, अब स्वीकार ही कर लो! इसमें कम से कम कंसोलेशन, सांत्वना रहेगी।
नहीं, लाओत्से की टोटल एक्सेप्टबिलिटी, तथाता का यह अर्थ नहीं है। लाओत्से कहता है, जो आदमी यह कहता है कि स्वीकार करने से संतोष रहेगा, वह आदमी अभी भी अस्वीकार कर रहा है।
इसको समझ लेना चाहिए। वह अभी भी अस्वीकार कर रहा है। क्योंकि अगर अस्वीकार न हो, तो असंतोष कैसा? मैं कहता हूं कि मेरे पैर में कांटा गड़ा है, अब स्वीकार ही कर लूं, तो कम से कम संतोष रहेगा कि ठीक है, गड़ गया। पीड़ा हो रही है,स्वीकार कर लूं।
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