SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Download More Osho Books in Hindi Download Hindi PDF Books For Free चाहिए। छोटा मकान बड़ा हो जाना चाहिए; आदमी मर जाए, मर जाए। रास्ते पर दस मील प्रति घंटे की रफ्तार के वाहन हट जाने चाहिए, हजार मील की रफ्तार के वाहन आ जाने चाहिए; कोई फिक्र नहीं कि रास्ते पर आदमी बचे कि न बचे। चांदतारों पर पहुंचना चाहिए; कोई फिक्र नहीं, पहुंचने वाला बचे कि न बचे। अगर प्रगति ही लक्ष्य है, तब तो लाओत्से की बात गलत है। लेकिन अगर आदमी, उसका आनंद, उसके जीवन का रस लक्ष्य है, तो लाओत्से की बात सही है। सच तो यह है कि कितनी ही वासना से दौड़ भला कितनी ही हो जाए, पहुंचना नहीं होता है। ध्यान रखना, दौड़ लिए, इसका मतलब यह नहीं कि पहुंच गए। दौड़ लेने मात्र से कोई पहुंच नहीं जाता। लेकिन तर्क ऐसा कहता है मन का कि नहीं दौड़ेंगे, तो कहीं न पहुंचेंगे। दौड़ेंगे, तो ही पहुंचेंगे। लाओत्से कहता है, जीवन की जो परम संपदा है, वह ठहरने और खड़े होने से दिखाई पड़ती है, दौड़ने से दिखाई नहीं पड़ती। और ऐसा लाओत्से अकेला नहीं कहता है। ऐसा बुद्ध भी कहते हैं, महावीर भी कहते हैं, पतंजलि भी कहते हैं। इस जगत में जिन लोगों ने जाना, वे सभी कहते हैं। अगर ऐसा है, तो सब ज्ञानी पलायनवादी हैं और सब अज्ञानी प्रगतिवादी हैं। एक भी ज्ञानी लाओत्से से भिन्न नहीं कहेगा। फिर यह भी मजे की बात है कि ये सब अज्ञानी, जो प्रगति करते हैं, घूम कर आज नहीं कल किसी न किसी लाओत्से के चरण में जाते हैं कि शांति चाहिए। लाओत्से कभी इन अज्ञानियों के चरणों में कभी नहीं गया कि शांति चाहिए। प्रगतिवादी सदा ही किसी दिन पलायनवादी के चरण में बैठ जाता है कि मुझे शांति दो। वह पलायनवादी कभी किसी प्रगतिवादी के पास पूछने नहीं जाता कि तुम्हें बड़ा आनंद मिल गया, थोड़ा आनंद मुझे भी दो । निरपवाद रूप से ऐसा क्यों होता है? लाओत्से के पास भी आंखें हैं, बुद्ध के पास भी आंखें हैं। उनको भी तो दिखाई पड़ेगा कि प्रगतिवादी आगे पहुंचा जा रहा है, हम भटक गए। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता कि बुद्ध उनके पास आएं पूछने। वही प्रगतिवादी जाता है लौट लौट कर पूछने कि मेरा मन बड़ा अशांत है, बड़ा पीड़ित हूं, बड़ा परेशान हूं। नहीं, पलायन से नहीं। स्थिति कुछ ऐसी है। शब्द से कुछ खतरा नहीं है, लेकिन शब्द के कनोटेशंस ! घर में आग लगी है और अगर मैं घर के बाहर भागने लगूं और आप कहें कि पलायनवादी हो! भागते हो घर के बाहर! तो एक अर्थ में शाब्दिक तो ठीक ही है, पलायन है। छोड़ रहा हूं घर; जहां आग लगी है, उससे हट रहा हूं। लेकिन आग लगे घर में रहना समझदारी नहीं है। आग लगे घर में रहना अगर समझदारी है, तो जब कोई हार्न बजा रही हो ट्रक तो उसके सामने खड़े रहना बहादुरी है। जो हटता है हार्न सुन कर, एस्केपिस्ट है। भाग रहे हो? यह तो अवसर है परीक्षा का, कि जब हार्न बज रहा है ट्रक का, तब खड़े रहो वहीं हिम्मत खो रहे हो, साहस कम कर रहे हो! नहीं, अगर हम जीवन की स्थिति को ठीक से समझें, तो लाओत्से जीवन से नहीं भाग रहा है; लाओत्से सिर्फ मूढ़ता से हट रहा है। लाओत्से सिर्फ आग से हट रहा है, बीमारी से हट रहा है। जीवन में तो गहरे जा रहा है। और हम जो समझ रहे हैं कि हम जीवन में आगे बढ़ रहे हैं, हम सिर्फ निपट मूढ़ता में आगे बढ़ते चले जाते हैं और जीवन से वंचित होते चले जाते हैं। अंतिम कसौटी क्या है? लाओत्से की शक्ल और हमारी शक्ल को मिलाना चाहिए। लाओत्से मरते वक्त भी चिंतित नहीं है, हम जीते वक्त भी चिंतित हैं। लाओत्से मौत को भी आलिंगन करने में आनंदित है, हम जीवन को भी कभी आनंद से आलिंगन नहीं कर पाए। लाओत्से बीमारी में भी हंसता है, हम स्वस्थ होकर भी रोते रहते हैं। कसौटी क्या है? लाओत्से के हाथों में कांटे भी रख दो तो अनुगृहीत हो जाएगा, हमारे हाथों में कोई फूल भी रख जाए तो धन्यवाद का भाव नहीं उठता। नहीं, क्या है मार्ग जिससे हम पहचानें? कौन सा मापदंड है? लाओत्से पलायनवादी नहीं है। और अगर लाओत्से पलायनवादी है, तो सभी को पलायनवादी होना चाहिए। फिर पलायनवाद धर्म है। क्योंकि लाओत्से व्यर्थ से पलायन करके जीवन की सार्थकता और सार में प्रवेश करता है। ऐसा लगता है कि शायद इसमें हताशा, निराशा है। जीवन से डर गए, भयभीत हो गए। लड़ने की सामर्थ्य नहीं है। शायद इसलिए हट रहे हो, कमजोर हो। कमजोरी का भी लक्षण लाओत्से नहीं देता। कमजोरी का जरा लक्षण नहीं देता। बुद्ध और लाओत्से और क्राइस्ट जैसे लोग जितनी सबलता का लक्षण देते हैं, उतनी सबलता का लक्षण कोई भी नहीं देता। और जिनको हम प्रगतिवादी कहते हैं, वे धीरे-धीरे सब नर्वस होते चले जाते हैं, सब सबके हाथ-पैर कंपने लगते हैं। और सबका स्नायु-मंडल रुग्ण हो जाता है। और सबकी छाती पर हजार तरह के भय प्रवेश कर जाते हैं। आज अमरीका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि मुश्किल से दस प्रतिशत लोग हैं जिन्हें हम मानसिक रूप से स्वस्थ कह सकें। तो नब्बे प्रतिशत लोग? और इन दस प्रतिशत का अगर हिसाब लगाने जाया जाए, तो इस दस प्रतिशत में गैर पढ़े-लिखे लोग, ग्रामीण, जंगल में रहने वाले लोग, मजदूर, नीचे वर्ग के लोग हैं। जितनी ऊपर वर्ग की दुनिया है, जितने जो लोग प्रगति कर गए हैं, उतना ही आंकड़ा बड़ा होता चला जाता है। बात क्या है? लाओत्से जैसी गहरी नींद तो कोई प्रगतिवादी कभी नहीं सो सकता, न लाओत्से जैसा आनंद से भोजन कर सकता है, न लाओत्से जैसे पाचन की क्षमता है। न लाओत्से जैसा स्वास्थ्य है, न लाओत्से जैसी निर्भयता है। न लाओत्से जैसा मौन है। इस पुस्तक का श्रेय जाता है रामेन्द्र जी को जिन्होंने आर्थिक रूप से हमारी सहायता की, आप भी हमारी सहायता कर सकते हैं - देखें आखिरी पेज
SR No.002371
Book TitleTao Upnishad Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, K000, & K999
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy