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मन फौरन ही इंतजाम करता है। जैसे ही आप उस जगह पहुंचेंगे जहां द्वार खुलता हो, मन कहेगा कि नहीं, अब आगे मत बढ़ना; बस अब लौट चलो। अब कोई भी बहाना खोजेगा।
मैं लोगों को समझाता रहा हूं कि वस्त्र बदलने से कुछ भी न होगा, नाम बदलने से कुछ न होगा, संन्यास लेने से कुछ न होगा। तो वे लोग मेरे पास आते थे और कहते थे कि कुछ तो बाहर का सहारा दें! अगर बाहर कोई भी सहारा नहीं, तो हम भीतर कैसे जाएं? तो आप तो ऐसी बात करते हैं कि हम भीतर जा ही न सकेंगे। माला नहीं, कपड़े नहीं, पूजा नहीं, मूर्ति नहीं, मंदिर नहीं, उपवास नहीं, कुछ भी नहीं, तो हम भीतर कैसे जाएं? कुछ बाहर का सहारा दें। मैंने कहा, ठीक, बाहर का सहारा देता हूं। अब वे ही लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, कपड़े बदलने से क्या होगा? माला पहनने से क्या होगा? पूजा, प्रार्थना, कीर्तन से क्या होगा? ये तो सब बाहर की चीजें हैं।
मैं बड़ी हैरानी में पड़ता हं कभी कि आदमी का मन कैसा है? और यह एक ही आदमी दोनों बातें कह जाता है और फिर भी नहीं देख पाता कि यह मेरा मन दोनों बातें कहता है। जब भीतर जाने का उपाय बनता है तब वह मन कहता है, बिना सहारे के भीतर कैसे जाओगे? जब बाहर का सहारा दो तो वह मन कहता है, बाहर के सहारे से क्या होगा? जाना तो भीतर है! और अदभुत तो बात यह है कि हमारी बुद्धिहीनता इतनी गहरी है कि हम अपने मन की इन मूढतापूर्ण बातों को बिलकुल भी नहीं समझ पाते। हर बार मन इंतजाम जुटा देता है कि सो जाओ। बहुत क्षुद्र बहाने जुटा देता है कि सो जाओ।
एक मित्र अभी आए और मुझसे कहने लगे कि आपने ही तो सदा कहा है कि किसी को दुख नहीं देना चाहिए। तो अगर मैं कपड़े संन्यासी के पहनूं तो मेरी पत्नी को दुख होता है।
तो मैंने उनसे पूछा कि तुमने मेरी यह बात कब सुनी थी? कहा, दस साल हो गए। दस साल में तुमने पत्नी को दुख कोई दिया कि नहीं? अगर न दिया हो, तुम्हें मैं संन्यासी मानता हूं। तुम जाओ। तुम्हें कपड़े बदलने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा, नहीं, दुख तो दिया। तो मैंने कहा, सिर्फ यह कपड़ा पहनते वक्त अब दुख न दोगे। और सारे दुख देते वक्त तुम मेरे पास न आए कि आपने कहा था कि पत्नी को कोई दुख न देना, किसी को दुख न देना। और सब दुख तुमने मजे से दिए।
पर आदमी की मूढ़ता अदभुत है। वह कहेगा, यह कपड़े बदलने से पत्नी को दुख हो जाएगा। और आपने ही तो कहा था कि किसी को दुख मत देना। अगर तुमने दुख देने बंद कर दिए हैं, तो बिलकुल ठीक है, मत दो दुख।
नहीं, वह कहते हैं, दुख देना तो कुछ बंद नहीं किए, मैं तो वैसे ही का वैसा हूं। और सब तो चलता ही है।
हैरानी जो है, वह यह है कि हम अपने मन को कभी जरा दूर से खड़े होकर नहीं देख पाते कि वह कब हमें सोने की सलाह देता है।
और सलाह वह ऐसी देता है कि लगेगा कि बिलकुल ठीक है। बात तो बिलकुल ठीक है। मगर यह पत्नी सिर्फ बहाना है। यह मन है असली चीज। यह मन पत्नी का बहाना ले रहा है। यह बगल की, पड़ोस की स्त्री को देखते वक्त इसने कभी बहाना नहीं लिया था कि पत्नी को दुख होगा। इसने कहा, कैसी पत्नी! कैसा क्या! ये सब तो, ये सब तो कामचलाऊ नाते-रिश्ते हैं। संसार में कौन किसका है? तब कभी खयाल में नहीं आता है।
लेकिन मन, जब भी मन के पार जाने का कोई कदम उठाने को हम होंगे, तभी सोने की सलाह देता है। वह द्वार खुलता है स्वर्ग का, ऐसा नहीं कि जब आप सोते हैं; वह जब खुलने को होता है, तभी मन कहता है, सो जाओ! हजार बहाने जुटा लेता है कि कितनी देर से जग रहे हो! थक गए हो, अब सो जाना चाहिए।
लाओत्से कह रहा है, कामना ही मन है। और निष्काम हुए बिना जीवन की गहराई में उतरने का कोई भी उपाय नहीं है।
प्रश्न: भगवान श्री, कृपया यह बतलाएं कि क्या लाओत्से के ये सारे उपदेश पराजित जीवन के हारे हए व्यक्ति के उपदेश नहीं हैं? क्या इन उपदेशों के मूल में एक प्रकार की निषेधात्मक अभिवृत्ति या पलायनवादिता नहीं है? तथाता या स्वीकृति की इस नीति से शोषण के तंत्र को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा? और अंत में, क्या इन उपदेशों को केवल कोरी सैद्धांतिक आदर्शवादिता नहीं कह सकते? ये व्यावहारिक नहीं हैं, और न इनमें काम से मुक्त होने का या अमूर्छित होने का उपाय बताया गया है।
लाओत्से उपाय में विश्वास नहीं करता। क्योंकि लाओत्से कहता है, उपाय तो वासना के ही होते हैं। निर्वासना का कोई उपाय नहीं । होता। उपाय का मतलब होता है, साधन। उपाय का मतलब होता है, मार्ग। उपाय का मतलब होता है, कहीं पहुंचने के लिए की गई कोई क्रिया। मार्ग का मतलब होता है, किसी मंजिल को जोड़ने वाली व्यवस्था, कोई सेतु, साधन।
लाओत्से कहता है, वासना के लिए उपाय की जरूरत है, मार्ग की जरूरत है, दौड़ने की जरूरत है, श्रम की जरूरत है, प्रयत्न की जरूरत है। निर्वासना के लिए तो समझ, अंडरस्टैंडिंग काफी है। निर्वासना के लिए समझ काफी है, कोई उपाय आवश्यक नहीं हैं-लाओत्से के लिए। और जो भी समझ पाए पूरी बात को, उसके लिए भी कोई उपाय आवश्यक नहीं हैं। सब उपाय नासमझों के लिए दिए गए खिलौने हैं, धीरे-धीरे छीनने की व्यवस्था है। इकट्ठा वे न छोड़ सकेंगे, इसलिए धीरे-धीरे छुड़ाने का आयोजन है।
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